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________________ 180 :: मूकमाटी-मीमांसा किया है जिससे इन ग्रन्थों की विश्वजनीन महत्ता स्पष्ट हो जाती है। उनके अनुसार : “इस काव्यधारा में जैन मुनियों के चिन्तन का चिन्तामणि है । यदि यह साहित्य नाना शलाकापुरुषों के उदात्त जीवन चरित से सम्पन्न है, तो सामान्य वणिक्पुत्रों के दुख-सुख की कहानी से भी परिपूर्ण है (भविसयत्त कहा) । तीर्थंकरों की भावोच्छ्वसित स्तुतियों, अनुभव भरी सूक्तियों, रहस्यमयी अनुभूतियों, वैभव-विलास की झाँकियों आदि के साथ ही उन्मुक्त वन्य जीवन की शौर्य स्नेहसिक्त गाथाओं के विविध चित्रों से अपभ्रंश साहित्य की विशाल चित्रशाला सुशोभित है।" (हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग', पृ. १८३)। कोई भी पाठक जब इस धारा के साहित्य से परिचित होना चाहता है तो उसे उन कवियों की मणिमाला मिलती है जिसमें अमर कवियों की मणियाँ गुंथी हुई हैं। इनमें स्वयम्भू, पुष्पदन्त, धनपाल, जोइंदु (योगीन्द्र), रामसिंह, हरिभद्र, देवसेन, कनकामर, हेमचन्द्र, सोमप्रभ, जिनपद्म, जिनप्रभ, जिनदत्त, विनयचन्द्र, राजशेखर, शालिभद्र, रइधू आदि यशस्वी प्रतिभाएँ प्रसिद्ध हैं। आचार्य मुनि विद्यासागर की अनुपम काव्य कृति 'मूकमाटी' को देखकर निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि उपरोक्त साहित्य धारा अभी अक्षुण्ण है । एक प्रकार से देखा जाय तो यह एक विशिष्ट रचना है । जैन अपभ्रंश काव्यों के सम्बन्ध में प्राय: यह मान्यता है कि इसमें जैन धर्मावलम्बी तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों, बलदेवों, वासुदेवों और प्रतिवासुदेवों आदि शलाकापुरुषों के जन्म-जन्मान्तर की ही जीवन-गाथा गाई गई है। सामान्य जन-जीवन की गाथाएँ कम ही परिलक्षित होती हैं । पर ऐसी बात नहीं है । जैन मुनियों की जितनी रचनाएँ उपलब्ध हैं, उनसे कहीं अधिक अन्धकार में अभी वेष्टनों में बन्द हैं। अभी उनको प्रकाश में आना है। पर जो प्रकाश में हैं उनमें कुछ ऐसी कृतियाँ और अभिव्यक्तियाँ हैं जिनमें सामान्य जन-जीवन की धड़कनें मार्मिकता के साथ अभिव्यक्त हैं । ऐसी कृतियों में कवि धनपाल की भविसयत्त कहा' (भविष्यदत्त कथा) सिरमौर है । इसमें किसी राजा या राजकुमार की कथा न होकर एक ऐसे सामान्य वणिक्पुत्र की कथा है जो अपने सौतेले भाई के द्वारा बार-बार छला जाता है । कष्ट और वेदना के सागर में डुबोया जाता है। उसके जीवन की त्रासदी बड़ी ही मार्मिक और बेधक है । स्वयं उसी के अनुसार : "उप्पण्णउं चिरु वणिवरहं गोत्ति परिवड्ढिउ मामहं सालि पुत्ति । वाणिज्जे गउ सव्वायरेण वंचिउ सावत्तिं भायरेण ॥” (१४/२०) और अकेले तिलकद्वीप में छोड़ दिए जाने पर व्याकुल हो अपने जीवन की निरर्थकता पर जो सोचता है, वह पंक्तियाँ हताशा से नहीं करुणा से ओतप्रोत हैं : "ण जत्ता ण वित्तं ण मित्तं ण गेहं, ण धम्मंण कम्मण जीयं ण देहं । ण पुत्तं कलत्तं, ण इ8 पि दिळं, गयं गयउरे दूरदेसे पइळं ॥" (३/२६) सामान्य वणिक्पुत्र की यह आत्माभिव्यक्ति हमें व्यापक जीवन के सन्दर्भ से जोड़ती है । इस परिप्रेक्ष्य में भविसयत्त कहा' जन जीवन से जुड़ी एक महत्त्वपूर्ण रचना है। . इसी प्रकार जैनाचार्य हेमचन्द्र सूरि द्वारा अपने 'सिद्ध हेमशब्दानुशासन' में संकलित एक दोहे में एक गरीब किसान की ऐसी व्यथा कथा चित्रित है जो अपने अभावों से ऐसा जूझ रहा है कि उसे हल चलाने के लिए एक जोड़ी बैल भी मयस्सर नहीं । जुए में एक तरफ उसका बैल है तो दूसरी ओर वह स्वयं । बैल इतना स्वामी भक्त है कि उसे अपने स्वामी की पीड़ा अखरने लगती है। वह अपने स्वामी के गुरुतर भार को देखकर बिसूरने लगता है। और सोचने लगता है कि मुझे ही दो खण्ड करके दोनों ओर क्यों नहीं जोत दिया जाता जिससे स्वामी का भार हलका हो जाय । इसकी वेदना प्रेमचन्द की सुप्रसिद्ध कहानी 'पूस की रात' के हल्कू और जबरा कुत्ते की वेदना से कहीं ज्यादा सार्थक एवं संवेदनशील
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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