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________________ 104 :: मूकमाटी-मीमांसा का तुक क्या है ! 'माटी' की महत्ता को कम लेखनेवालों के लिए ही शायद किसी ने लिख रखा है : "माटी कहे कुंभार से, तू का रौदे मोय । इक दिन ऐसा आयगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥" माटी हेय और तुच्छ नहीं है । माटी से ही सब उपजता है और अन्तत: सब उसी में समा जाते हैं। जायसी के 'पदमावत' महाकाव्य के अन्त में रानी पद्मिनी और राजपूत रानियों के सती हो जाने के बाद सुलतान वहाँ पहुँचता है और एक मुट्ठी राख उठाकर नीचे छोड़ देता है । कवि ने बताया है कि जीवन की इतिश्री इसी प्रकार होती है। कहा भी गया है : “क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा । पंच तत्त्व यह रचित सरीरा।" पंच तत्त्वों से रचित यह शरीर रूपी कुम्भ महत् है, भव्य है और उदात्त है । इसकी पवित्रता को बनाए रखने की बात हर महाकवि दुहराता आया है। 'मूकमाटी' का नायक माटी का पुतला यह मनुष्य है जो अपनी साधना से सम्पूर्ण चराचर के लिए उपयोगी बन जाता है। ४८८ पृष्ठों की यह बृहदाकार काव्यकृति चार खण्डों में विभाजित है। हलके कथासूत्र के सहारे जीवन के मर्म में प्रवेश कर जीवन के विराट् सत्यों का उद्घाटन किया गया है । इतना व्यापक फलक जिस काव्यकृति का हो और इतनी तलस्पर्शी मानव कल्याणकारी दृष्टि जिसमें हो, उसे महाकाव्य नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे । परम्परा की लकीर पीटने वालों की निराशा सत्य का कण्ठावरोध तो नहीं कर सकती । 'मूकमाटी' को दलित का प्रतीक मान कर उसे 'दलित साहित्य' से जोड़ने की कोई अर्थवत्ता मैं नहीं मानता। ___कहनेवाले तो यह भी कह सकते हैं कि आचार्य विद्यासागर वैरागी सन्त हैं, उनका काव्य-सृजन से क्या नाता ? नाता बताने के पूर्व मैं यह स्मरण दिला दूँ कि तुलसी, जायसी, कबीर, सूर, मीरा क्या थे और फिर भी उनका काव्य-सृजन से नाता कैसे था ! आचार्यश्री की निरीक्षण शक्ति बहुत तीव्र है और देखी हुई हर मुद्रा, हर भाव, हर भंगिमा को ज्यों का त्यों उरेह देने की अद्भुत काव्य-क्षमता आप में है । इस सम्बन्ध में एक ही उदाहरण पर्याप्त है : "उसके दोनों कन्धों से उतरती हुई/दोनों बाहुओं में लिपटती हुई, फिर दायें वाली बायीं ओर/बायों वाली दायीं ओर जा कटि-भाग को कसती हुई/नीले उत्तरीय की दोनों छोर नीचे लटक रही हैं।” (पृ. ३३६) । आवश्यक होने पर आचार्यश्री उपमानों की झड़ी-सी लगा देते हैं। उपमानों का चयन कवि की निरीक्षण शक्ति और जीवनानुभव पर निर्भर करता है : "कृष्ण-पक्ष के चन्द्रमा की-सी/दशा है सेठ की शान्त-रस से विरहित कविता-सम/पंछी की चहक से वंचित प्रभात-सम शीतल चन्द्रिका से रहित रात-सम/और/बिन्दी से विकल अबला के भाल-सम/सब कुछ नीरव-निरीह लग रहा है । लो,/ढलान में दुलकते-दुलकते/पाषाण-खण्ड की भाँति घर आ पहुंचता है सेठ..!" (पृ. ३५१-३५२) प्राचीन काल से ही कवियों की बहुझता भी चर्चा का विषय रही है । कवि कोरा भावधारा में डूबने-उतराने वाला भावनाशील जीव ही नहीं होता, जीवन का व्यापक अनुभव तथा प्रचुर ज्ञान-भण्डार भी उसके पास होता है, वह
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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