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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 81 ही प्रधानतया दर्शन हुए हैं जो उनकी टिप्पणी से प्रकट है : “यह कृति अधिक परिमाण में काव्य है या अध्यात्म, कहना कठिन है । लेकिन निश्चय ही यह है आधुनिक जीवन का अभिनव शास्त्र । और, जिस प्रकार शास्त्र का श्रद्धापूर्वक स्वाध्याय करना होता है, गुरु से जिज्ञासुओं को समाधान प्राप्त करना होता है, उसी प्रकार इसका अध्ययन और मनन अद्भुत सुख और सन्तोष देगा, ऐसा विश्वास है।” (प्रस्तवन, पृ. XVII) शास्त्र की दृष्टि से जहाँ यह एक उच्चकोटि की रचना है, वहीं काव्य की दृष्टि से अनेक दोषों से ग्रस्त है। फिर भी, इसमें उत्तम काव्य के अनेक उदाहरण मिलते हैं। गुण-दोषों की समीक्षा के पूर्व कथावस्तु पर एक नज़र डाल लेना आवश्यक है। कथावस्तु: अर्थहीन तुच्छ माटी का कुम्भकार के निमित्त से कुम्भ का सुन्दर रूप धारण करना और जलधारण तथा जलतारण (नदी आदि को पार कराना) द्वारा परोपकारी बनना, यह इस काव्य की कथावस्तु है जो देव-शास्त्र-गुरु के निमित्त से बहिरात्मत्व से परमात्मत्व अवस्था की प्राप्ति का प्रतीक है। 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि' नियम की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए कुम्भदशा की प्राप्ति में सागर द्वारा जलवर्षा और उपलवृष्टि के विघ्न उपस्थित कराए गए हैं। सज्जन सदा दूसरों के विघ्ननिवारण में तत्पर रहते हैं, यह दर्शाने के लिए सूर्य और पवन के द्वारा मेघों के छिन्न-भिन्न किए जाने की घटना कल्पित की गई है । बिना तप के जीवन में परिशुद्धता एवं परिपक्वता नहीं आती, इस तथ्य के प्रकाशन हेतु कुम्भ को अवा में तपाए जाने का दृश्य समाविष्ट किया गया है। योग्य बनकर मनुष्य दूसरों के उपकार में अपना जीवन लगाता है, इस आदर्श के दर्शन कराने हेतु घट के द्वारा मुनि के लिए आहारदान के समय जलभरण तथा संकट की स्थिति में अपने स्वामी को नदी पार कराए जाने की घटनाएँ बुनी गई हैं। अनेक तिर्यंचों और जड़पदार्थों को विभिन्न उपदेशों और सिद्धान्तों के प्रतिपादन का प्रसंग उपस्थित करने के लिए पात्रों के रूप में कथा से सम्बद्ध किया गया है। ___ इस कथा की धारा में उत्तम काव्य के अनेक उदाहरण दृष्टिगोचर होते हैं और काव्यकला के अनेक उपादानों का सटीक प्रयोग भी मन को मोहित करता है । उन सब पर एक दृष्टि डालना सुखकर होगा। भावों की कलात्मक अभिव्यंजना : कृति के आरम्भ में ही मानवीकरण द्वारा प्रभात का मनोहारी वर्णन हुआ है। सूर्य और प्राची, प्रभाकर और कुमुदिनी, चन्द्रमा और कमलिनी, इन्दु और तारिकाओं पर नायक-नायिका के व्यापार का आरोप कर शृंगार रस की व्यंजना की गई है : “लज्जा के घूघट में/डूबती-सी कुमुदिनी/प्रभाकर के कर-छुवन से बचना चाहती है वह ;/अपनी पराग को-/सराग-मुद्रा को पाँखुरियों की ओट देती है।" (पृ. २) सहृदयों के सम्पर्क में रहने पर भी हृदयहीनों में सहृदयता का आविर्भाव असम्भव है, इस स्वजाति?रतिक्रमा का घोष करने वाले मनोवैज्ञानिक तथ्य की व्यंजना कंकरों की प्रकृति के द्वारा कितने मार्मिक ढंग से हुई है। अन्योक्ति या प्रतीकात्मक काव्य का यह सुन्दर नमूना है। लाक्षणिक प्रयोगों से इस काव्य की हृदयस्पर्शिता द्विगुणित हो गई है : "अरे कंकरो!/माटी से मिलन तो हुआ/पर/माटी में मिले नहीं तुम ! माटी से छुवन तो हुआ/पर/माटी में घुले नहीं तुम!/इतना ही नहीं, चलती चक्की में डालकर/तुम्हें पीसने पर भी/अपने गुण-धर्म
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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