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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 69 प्रतिशोधी कभी सुकृत नहीं चाहते हैं। बादल सूर्य के प्रभामण्डल को भी निस्तेज कर रहे हैं। सूर्य के तेज के कारण सागर की सहायता के लिए राहु आता है और वह सूर्य को ग्रस देता है । अब धरती के रजकण बादलों का रास्ता रोकते हैं। इन्द्रधनुष का निर्माण होता है, इन्द्र प्रत्यक्ष न आकर धनुष के रूप में इस युद्ध में सम्मिलित होता है । इन्द्र के अमोघ अस्त्र के प्रहार से मेघ रोने लगते हैं, बिजली काँपने लगती है। सागर ओलों की वर्षा करता है। इस प्रकार कई दिनों के अनवरत महायुद्ध के बाद आकाश निरभ्र होता है । वर्षा रुक जाती है। प्रस्तुत कृति का तीसरा खण्ड वर्षा वर्णन से व्याप्त है । यह वर्णन लगभग ७५ पृष्ठों का वर्णन है । प्रकृति के इस काल का इतना विस्तृत वर्णन अन्यत्र दुर्लभ है। वर्षा वर्णन को मुनिजी ने एक कथात्मक बाना पहना दिया है। सागर और सूर्य के बीच एक युद्ध छिड़ जाता है । इस युद्ध में कभी सागर का पक्ष बलवान् सिद्ध होता है, तो कभी सूर्य का पक्ष । क दूसरे को ललकारा जाता है तो कभी समझा-बुझाने का प्रयास होता है। सागर दल में चन्द्रमा, राह सम्मिलित होते हैं, सूर्य दल में इन्द्र आदि । देखते ही देखते महायुद्ध खड़ा होता है। इस प्रकार मुनि प्रतिभा इसे नाटकीयता प्रदान करती है। नाटकीयता के साथ-साथ इस चित्र में आचार्यजी की कल्पनाशक्ति और कवित्वशक्ति अपनी पूरी सामर्थ्य एवं श्रेष्ठता के साथ विद्यमान है। सागर को रत्नाकर कहा जाता है । कविवर्य की कल्पना एक नया चित्र खड़ा करती है। धरती का धन वर्षा के कारण सागर तक पहुँचता है । धरती निर्धन बनती है और चोरी के धन से सागर रत्नाकर बन जाता है। चन्द्रमा का नाम सुधाकर है । मुनिजी ने कल्पना की है कि जलतत्त्व से घूस लेकर चन्द्रमा सुधाकर बन गया है। वह वसुधा की सुधा का पान करके सुधाकर बनता है। परिणामत: वह लज्जा से कलंकित है जिससे वह रात में घर से बाहर निकलता है, चोर की तरह, मुँह छिपाकर । मोतियों के निर्माण पर कविकल्पना अधिक विकसित होती है। वंशी जल को वंशमुक्ता बनाता है । इसलिए कृष्ण भी वंशी की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते हैं। इसी प्रकार नाग, सूकर, मच्छ, गज आदि भी धरती के वंश होने से उनके नाम से मोती जाने जाते हैं। इस प्रकार पूरे चित्रण में कल्पना की ऐसी झड़ी सर्वत्र व्याप्त है। एक चित्र अपने परिपूर्ण रूप में आता है, कभी सांग रूपक बनकर कभी माल्योपमा बनकर । कुल मिलाकर इसमें अपूर्व बिम्ब निर्माण क्षमता विद्यमान है । विभिन्न अलंकारों का सहज, स्वाभाविक प्रयोग इस वर्णन की शोभा को बढ़ाता है। मुनिजी ने बादल को नारी रूप देकर उसे बदली कहा है । अति वर्षा से व्याप्त धरती को बचाने के लिए सूर्य अपनी पत्नियों - बदलियों को उनके ममतामयी स्त्रीरूप की याद दिलाता है । इस प्रसंग में महिला, अबला, कुमारी, स्त्री, सुता, दुहिता, माता आदि नारी विषयक शब्दों और सम्बन्धों की व्याख्याएँ प्रस्तुत की गई हैं। इसमें नारी प्रशस्ति के साथ शब्दों के मूल तक पहुँचने की मुनिजी की प्रतिभा का परिचय प्राप्त होता है। युद्ध के विभिन्न अस्त्रों, दाँवपेंचों, घात-प्रतिघातों के चित्रों में भी प्रतिभा का निर्बाध विलास दिखाई देता है। प्रतिभा, प्रबन्धात्मकता, चित्रात्मकता, कल्पनाशीलता, नाटकीयता, बिम्बात्मकता, आलंकारिकता का ऐसा योग और चित्रण की सजीवता, स्पष्टता, प्रभावशीलता का रूप अन्यत्र दुर्लभ है। वास्तविकता यह है कि मात्र यह खण्ड भी आचार्यजी की महाकाव्यात्मक प्रतिभा का श्रेष्ठ परिचय देता है । यह खण्ड अपने आप में स्वतन्त्र और स्वयं पूर्ण हस्ती रखता है । मुनिजी ने इसे मूल विषय से जोड़ कर अपनी निर्मिति-कुशलता और प्रबन्धात्मक प्रतिभा का अपूर्व परिचय दिया है । अत: इसका अपना स्वतन्त्र स्थान भी सिद्ध होता है और कृति को महाकाव्यात्मकता प्रदान करने में सहायक सिद्ध होता है। इस वर्णन से और दो-एक तथ्य स्पष्ट होते हैं। इससे मुनिजी का जलतत्त्व की अपेक्षा धरती के प्रति अधिक झुकाव सिद्ध होता है । अत: यहाँ जलतत्त्व से महासंघर्ष चित्रित है। वास्तविकता यह है कि यह चित्र धरती की श्रेष्ठता का महागान प्रस्तुत करता है । इस संघर्ष से एक बात यह भी स्पष्ट होती है कि साधना के रास्ते में आनेवाले विघ्नों का डटकर मुकाबला करने से ही ऊर्ध्वगामित्व सम्भव है । इस संघर्ष के आतप में तपकर कुम्भ अपनी यात्रा सफल बना
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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