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________________ साधक की साधना का प्रबन्धकाव्य : 'मूकमाटी' डॉ. सुधाकर गोकाककर जब प्रबन्धकाव्यों के सृजन की परिपाटी लुप्त हो रही है, तब 'मूकमाटी' जैसे विभिन्न स्तरों पर विशिष्ट प्रबन्धकाव्य की सृष्टि अपने आप में एक उपलब्धि है । आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के इस प्रबन्धकाव्य की आलोचना, मात्र महाकाव्य अथवा प्रबन्धकाव्य के परम्परापोषित सिद्धान्तों के आधार पर करना अपर्याप्त सिद्ध होगा। 'मूकमाटी' के काव्य प्रकार पर 'ही' लिखना भी पूर्ण लेखन कर्म नहीं कहा जा सकता और न जैन दर्शन के सिद्धान्तों के आधार पर इसका मूल्यांकन परिपूर्ण सिद्ध हो सकता है। आचार्यनी की दार्शनिक पहुँच, चिन्तन की सूक्ष्मता, कल्पनाशक्ति की विराटता, कवित्वशक्ति की विपुलता, भावशक्ति की महानता, अभिव्यक्ति की आशयगर्भता तथा दृष्टि की वर्तमानकालिकता के एक साथ दर्शन इस कृति में होते हैं। यह सही है कि विषय की प्रस्तुति का मुख्य आधार जैन दर्शन है तथा इसका लक्ष्य शुभ संस्कारों की स्थापना करना है, लेकिन इसमें उतनी ही विराट् प्रतिभा भी विद्यमान है। कृति के 'मानस-तरंग' में आचार्यजी ने रचना के उद्देश्य पर विस्तार से लिखते हुए कहा है : “जिसका प्रयोजन सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट हुई कुरीतियों को निर्मूल करना और युग को शुभ-संस्कारों से संस्कारित कर भोग से योग की ओर मोड़ देकर वीतराग श्रमण-संस्कृति को जीवित रखना है'(पृ. XXIV)। स्पष्ट है कि प्रस्तुत कृति एक शुभ उद्देश्य का प्रतिफल है। सन्त-कवि ने जिस उद्देश्य की स्थापना के लिए जिस चरित्र का निर्माण किया है, वह अपने आप में नवीन तथा अपर्व है। माटी की महत्ता का यह महागान नवीन दिशाबोध और भावबोध का अनोखा संसार प्रस्तत करता है। यह माटी उस श्रमण संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है, जो स्वयं ही नहीं अपितु समाज को भी भोग से हटाकर योग की ओर मोड़ देने में सक्षम है। इस प्रबन्धकाव्य में पात्रों की सृष्टि नए और व्यापक भावबोध को स्पष्ट करती है । कुम्भकार, सेठ, सेठ का परिवार, सन्त आदि कुछ मानव चरित्र अवश्य हैं, लेकिन माटी, लेखनी, स्वर्ण कलशी, स्फटिक झारी, केसर आदि भी पात्र बनकर आते हैं। फिर नदी, सूर्य, बादल, चन्द्रमा, मछली, सर्प आदि पात्र बनकर अवतरित हों, तो आश्चर्य ही क्या ! यहाँ तक कि भाववाचक आतंकवाद भी एक पात्र बन गया है । आचार्यजी ने इन पात्रों को सजीवता प्रदान कर उन्हें वर्ग विशेष और चरित्र विशेष का प्रतिनिधित्व प्रदान किया है। संकोचशीला, लाजवती, सुखविहीना, दुःखयुक्ता, त्यक्ता, तिरस्कृता, क्रमहीना, पराक्रमरीता माटी को केन्द्र में रखकर काव्य की सृष्टि आचार्यजी के सूक्ष्म चिन्तन और संवेदनशीलता की उपलब्धि है। पंचतन्त्र, 'हितोपदेश' आदि विश्वप्रसिद्ध रचनाओं में पशु-पक्षियों का पात्र-संसार आता है, लेकिन 'मूकमाटी' में जड़-चेतन संसार ही पात्र बन जाता है। इस संसार का नेतृत्व करती है माटी । माटी को केन्द्रीय पात्र रखने की कल्पना ही मौलिक है । वास्तविकता तो यह है कि प्रस्तुत कृति माटी और धरती की महानता का मंगलगान है । क्षुद्र-सी, त्यक्ता माटी को इतनी ऊँचाई पर पहुँचाना महाकाव्यात्मक प्रतिभा का ही परिणाम है । रचना के विकासक्रम में माटी ऊर्ध्वता के एक-एक सोपान को पार करती हुई मोक्षमार्ग तक पहुँचती है-यह स्वयमेव एक प्रेरक उदाहरण है। 'मूकमाटी' की माटी अपनी मंज़िल पर पहुँचती है और साथ-साथ वह सेठ, सेठ के परिवार, हाथी, सर्प आदि को भी इस मार्ग का अनुसरण करने को उद्बोधित करती है । अपने चरित्र से वह स्वयं एक आदर्श की स्थापना अवश्य करती है तथा अपने साथ समाज को भी अपने रास्ते पर ले चलती है । भोग को सर्वस्व माननेवाले सब यहाँ मात खाते हैं, हार जाते हैं और त्याग का अनुसरण करनेवाले अपार पीड़ाओं को सहने के बावजूद अपने गंतव्य पर पहुँचते हैं। माटी, सेठ आदि की प्राप्ति आचार्यजी की 'युग को श्रमणसंस्कृति की सीख' देने का प्रतिफल है। शिल्पी के आँगन के मोतियों का मोह रखनेवाले राजा को शिल्पी के सामने हार खानी पड़ती है। स्फटिक
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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