SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 578
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 490 :: मूकमाटी-मीमांसा वह स्वदेह परिमाण है । ऐसी तमाम अपने प्रस्थान की मान्यताएँ प्रसंगत: व्यक्त हुई हैं। ये मान्यताएँ मननप्रसूत हैं जो यहाँ परिपुष्ट हुई हैं। ___ अन्ततः निष्कर्ष रूप में आचार्यश्री के अपने जीवन-दर्शन के अंग रूप विभिन्न सोपानों का अत्यन्त रोचक पक्ष प्रस्तुत करने के लोभ का संवरण नहीं कर सकता। उनका कितना संगत अनुभव है जो अध्यात्ममार्ग में सर्वसम्मत प्रत है। उन्होंने कहा है : " 'पूत का लक्षण पालने में कहा था न बेटा, हमने/उस समय, जिस समय तुमने मेरी आज्ञा का पालन किया/जो/कुम्भकार का संसर्ग किया/सो सृजनशील जीवन का/आदिम सर्ग हुआ।/जिसका संसर्ग किया जाता है उसके प्रति समर्पण भाव हो,/उसके चरणों में तुमने/जो अहं का उत्सर्ग किया/सो/सृजनशील जीवन का/द्वितीय सर्ग हुआ। समर्पण के बाद समर्पित की/बड़ी-बड़ी परीक्षायें होती हैं और "सुनो !/खरी-खरी समीक्षायें होती हैं, तुमने अग्नि-परीक्षा दी/उत्साह साहस के साथ/जो/उपसर्ग सहन किया, सो/सृजनशील जीवन का/तृतीय सर्ग हुआ। परीक्षा के बाद/परिणाम निकलता ही है/पराश्रित-अनुस्वार, यानी बिन्दु-मात्र वर्ण-जीवन को/तुमने ऊर्ध्वगामी-ऊर्ध्वमुखी/जो स्वाश्रित विसर्ग किया,/सो/सृजनशील जीवन का/अन्तिम सर्ग हुआ। निसर्ग से ही/सृज्-धातु की भाँति/भिन्न-भिन्न उपसर्ग पा तुमने स्वयं को/जो/निसर्ग किया,/सो/सृजनशील जीवन का वर्गातीत अपवर्ग हुआ।" ('मूकमाटी, पृ. ४८२-४८३) धरती (महासत्ता) के द्वारा कुम्भ को सम्बोधित इन वचनों ने सबको कुम्भकार की ओर उन्मुख कर दिया और कुम्भकार ने नम्रता की मुद्रा में आकर इस सबको ऋषि-सन्तों की कृपा बताते हुए कुछ ही दूरी पर पादप के नीचे पाषाणफलक पर आसीन नीराग साधु की ओर सबका ध्यान आकृष्ट किया । उनकी प्रदक्षिणा हुई, पादोदक सर पर लगाया गया, फिर भी चातक की भाँति गुरुकृपा की प्रतीक्षा में सब । गुरुदेव हाथ उठकार कहते हैं : "शाश्वत सुख का लाभ हो" । इस प्रकार मनन से पुष्टीकृत मार्ग द्वारा उपलब्ध मंज़िल (मोक्ष) का स्वरूप स्पष्ट करता हुआ सन्त सद्गुरु मौन हो जाता है। शिष्यों की ग्रन्थियाँ छिन्न-भिन्न हो जाती हैं। इस प्रकार आचार्यश्री ने शास्त्रीय पारिभाषिक शब्दावली की लौह श्रृंखला से मुक्त कर जिस सर्वमान्य पद्धति से अपना जीवन दर्शन प्रस्तुत किया है, वह हृदय को तृप्त कर देता है । इस निर्वहणात्मक प्रस्तुति में मंज़िल, मार्ग और तदर्थ मनन-सभी कुछ आ गया है। आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज : प्रथम दर्शन और अनुभूति महाकवि श्रीहर्ष ने कहा है : "गुणाद्भुते वस्तुनि मौनिना चेत् । वाग्जन्मवैफल्यमसह्यशल्यम् ॥" नैषधीय-चरितम्
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy