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________________ 'मूकमाटी' : दार्शनिक चेतना का चारुतम निदर्शन डॉ. रामनरेश सन्त आचार्य विद्यासागर कृत 'मूकमाटी' दार्शनिक चेतना का श्रेष्ठतर काव्य कलेवर में चारुतम निदर्शन है। माटी जैसी सामान्य विषय वस्तु महाकाव्यात्मक गरिमा की सार्थकता प्रदान करना, साधक की सहज सिद्धि का अप्रतिम प्रमाण है । समर्पित सन्तों की तप:पूत वाणी उनकी आत्मा का अनहद संगीत होती है । उसे काव्य के पारम्परिक प्रतिमानों के निकष पर परखना न्यायोचित न होगा । 'सन्त वाणी' का उद्देश्य, काव्यशास्त्रीय सिद्धि का प्रदर्शन नहीं होता, कलात्मक चमत्कार भी नहीं होता । उसके मूल प्रदेय का मूल्यांकन जीवनानुभूति के दार्शनिक रूपान्तरण के स्वरूप में ही किया जा सकता है। तथापि सन्त वाणी काव्य के अपेक्षित उपादानों से सर्वथा शून्य होती है, साहित्य का इतिहास इस धारणा की आंशिक रूप से भी पुष्टि नहीं कर सकता। लोक-मंगल की अनन्य निष्ठा और आचरण की शुचिता वा सहज अलंकरण हैं, कविता के अर्थवान् प्रतिमान हैं। 'मूकमाटी' का कृतिकार भारतीय सन्त परम्परा का उज्ज्वल रत्न है। उसका वाणी विधान साहित्य की महान् निधि है । भारत की वैचारिक चेतना का प्रवाह मुख्यत: दो धाराओं में लक्षित किया जा सकता है। प्रथमवर्णाश्रमधर्मानुमोदित और द्वितीय इसके समान्तर वर्ण-जाति निरपेक्ष समतामूलक प्रवाह । इन दोनों धाराओं की पृथक्-पृथक् अनेक शाखाएँ-उपशाखाएँ हैं । सबकी अपनी-अपनी श्रेष्ठतम उपलब्धियाँ हैं । इनकी सीमाएँ भी रेखांकित की जा सकती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि दूसरी धारा आधुनिक और नवीन जीवन-मूल्यों के अधिक निकट है, अधिक शाश्वत है । परिमाण में देखा जाय तो प्रथम धारा को उपजीव्य मानकर आधुनिकीकृत, सन्तुलित, समन्वित और विवेक सम्मत ग्राह्यता की दृष्टि से रचे गए काव्यों की परम्परा अधिक समृद्ध है। यह हमारे देश की सामाजिक संरचना का स्वाभाविक प्रतिफलन है । परन्तु इन कृतियों के अनुशीलन से यह सुस्पष्ट हो जाता है कि इस धारा ने दूसरी धारा की विचारोर्मियों को अधिकाधिक आत्मसात् कर लिया है। मेरा विचार है कि स्वतन्त्र रूप से दूसरी धारा पर आधृत कृतियों में 'मूकमाटी' का स्थान अन्यतम है । जीवन-जगत् को जिस निरपेक्ष और वस्तुनिष्ठ धरातल पर उदात्तता के साथ आचार्य विद्यासागरजी ने 'मूकमाटी' प्रतिष्ठित किया है, वह उनकी तपश्चर्या और उनके श्रेष्ठ धार्मिक परिवेश का शुभ्र प्रतीक है। उनके द्वारा निरूपित आत्मा की 'मुक्ति यात्रा' मानव की 'जय यात्रा' का पर्याय है। कृतिकार ने दर्शन के गूढ़तम और दुर्बोध रहस्यों को लोक प्रकृति के सुपरिचित उपमानों का आश्रय लेकर सुगम और सुबोध रूप में प्रेषणीय बना दिया है । 'मूकमाटी' का यह वैशिष्ट्य यत्र-तत्र - सर्वत्र द्रष्टव्य है । 'मूकमाटी' में सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराओं के अर्थवाहक शब्दों से नवीन उद्भावनाओं का सृजन किया गया है । यह कवि द्वारा 'दूर की कौड़ी' लाने का प्रयास नहीं है। शब्द - क्रीडा का कौतुक नहीं है। यहाँ शब्दों को अर्थवान् गाम्भीर्य मिला है। यह आचार्यजी के सन्तोचित व्यक्तित्व के सर्वथा योग्य है । मेरा विश्वास है 'मूकमाटी' जैसी दिव्य कृति के अधिकाधिक प्रसार से जीवन-जगत् में व्याप्त सर्वग्रासी भौतिकतावादी अन्धकार विदीर्ण होगा और मानवता का श्रेष्ठ पन्थ प्रशस्त होगा । 'मूकमाटी' निस्सन्देह नैतिक मूल्यों ह्रासमान युग को नई संजीवनी शक्ति से अनुप्राणित करने में समर्थ है। आचार्य विद्यासागरजी की यह कृति मनुष्य मात्र को मानवता के स्वर्ण शिखर स्पर्श करने के लिए सदैव उत्प्रेरित करती रहेगी। 0
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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