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________________ 354 :: मूकमाटी-मीमांसा "आना,जाना, लगा हुआ है/आना यानी जनन-उत्पाद है जाना यानी मरण-व्यय है/लगा हुआ यानी स्थिर-धौव्य है और/है यानी चिर-सत्/यही सत्य है यही तथ्य!" (पृ. १८५) कर्म-व्यवस्था : ऊपर कथित चेतन की संसार में आने और जाने की क्रिया तब तक बनी रहती है जब तक कर्मों का संश्लेषण बना रहता है । चेतन चाहे तो विश्लेषण करके उनसे मुक्त हो सकता है । कवि ने इन विचारों को निम्न प्रकार से अभिव्यक्त किया है : “कर्मों का संश्लेषण होना,/आत्मा से फिर उनका स्व-पर कारणवश/विश्लेषण होना,/ये दोनों कार्य आत्मा की ही/ममता-समता-परिणति पर आधारित हैं।” (पृ. १५-१६) दुःख और सुख कृत कर्मों के फल हैं। उनकी प्राप्ति में किसी अन्य को हेतु मानना अपने भविष्य को ही दूषित करना है। कवि ने इस सत्य को सीता-हरण का उदाहरण देकर भली प्रकार उद्घाटित किया है । ध्यातव्य हैं निम्न पंक्तियाँ : "रावण ने सीता का हरण किया था/तब सीता ने कहा था : यदि मैं /इतनी रूपवती नहीं होती/रावण का मन कलुषित नहीं होता और इस/रूप-लावण्य के लाभ में/मेरा ही कर्मोदय कारण है, यह जो/कर्म-बन्धन हुआ है/मेरे ही शुभाशुभ परिणामों से ! ऐसी दशा में रावण को ही/दोषी घोषित करना। अपने भविष्य-भाल को/और दूषित करना है ।" (पृ. ४६८-४६९) कवि ने कर्म-संश्लेषण का कारण ममता बताया है । यही ममता है मोह । कवि ने मोह की परिभाषा की है : “वासना का विलास/मोह हैं" (पृ. ३८)। इसका तात्पर्य है कि इन्द्रिय-विषय मोह के मूल हैं । इन्द्रिय-विषयों में कवि ने रसनेन्द्रिय-विषय को सबसे अधिक दुःखोत्पादक माना है। इस सन्दर्भ में निम्न पंक्तियाँ ध्यातव्य हैं : "रसनेन्द्रिय के वशीभूत हुआ व्यक्ति/कभी भी किसी भी वस्तु के सही स्वाद से परिचित नहीं हो सकता।” (पृ. २८१) सन्त : कवि ने सन्तों के सम्बन्ध में भी अच्छा अध्ययन किया है। उनके अनुसार संसार का अन्त सन्त ही करते हैं किन्तु वे सभी सन्तों को सन्त नहीं मानते। उन्होंने लिखा है : "जो रागी है और द्वेषी भी,/सन्त हो नहीं सकता वह/और नाम-धारी सन्त की उपासना से/संसार का अन्त हो नहीं सकता।" (पृ. ३६३) संसार का अन्त करने वाले सन्तों को कवि ने ‘पात्र' संज्ञा दी है। उनके अनुसार पात्र कैसा हो, यह जानने के लिए ध्यातव्य हैं इस महाकाव्य की निम्न पंक्तियाँ : "पात्र हो पूत-पवित्र/पद-यात्री हो, पाणिपात्री हो पीयूष-पायी हंस-परमहंस हो,/अपने प्रति वज्र-सम कठोर
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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