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________________ 312 :: मूकमाटी-मीमांसा ग्रन्थि से जोड़ते हैं। वे कहते हैं गाँठ है तो हिंसा होगी ही, अतएव गाँठ पालना खतरे से खाली नहीं है वरन् वर्जित है। "ग्रन्थि हिंसा की सम्पादिका है और निर्ग्रन्थ-दशा में हो/अहिंसा पलती है।" (पृ. ६४) 'वसुधैव कुटुम्बम्' की व्याख्या आधुनिक परिप्रेक्ष्य में द्रष्टव्य है : “वसु यानी धन-द्रव्य/धा यानी धारण करना/आज धन ही कुटुम्ब बन गया है/धन ही मुकुट बन गया है जीवन का ।” (पृ. ८२) कहीं-कहीं जैनत्व की चतुराई अख़र जाती है । कहा जाता है कि जैन धर्म का पालन करने वाले अधिकांश तीर्थकर क्षत्रिय हुए हैं। पुराने जैनियों में अनेक लोग अपने नाम के साथ सिंह लिखते हैं। कहते हैं यही अपभ्रंश होकर सिंघई बन गया। इन सभी शौर्यपूर्ण स्थितियों के होते हुए भी बनिये या बानिया (जैनियों को भी कहीं-कहीं बानिया कहा जाता है) अपनी अवसरवादी चतुराई के कारण काँइयाँ कहलाते हैं और यही कायरता को जन्म देती है । कायरता में अहिंसा नहीं पल सकती। "फूल की गन्ध-मकरन्द से/वंचित रहना/अज्ञता ही मानी है, और/काँटों से अपना बचाव कर/सुरभि-सौरभ का सेवन करना विज्ञता की निशानी है ।" (पृ. ७४) मनोविकारों की सपाटबयानी का भी अपना कौशल है। कहीं-कहीं तुक या शब्दकौशल के कारण अस्पष्टता भी झलक जाती है पर अधिकाशंतया सार्थकता उपलब्ध है : "मन की छाँव में ही/मान पनपता है/मन का माथा नमता नहीं न-'मन' हो, तब कहीं/नमन हो 'समण' को इसलिए मन यही कहता है सदा-/नम न ! नम न !! नम न !!!" (पृ. ९७) शब्दों का गहन बोध रचना में झलक-झलक उठता है । अनुभूत शब्द अपने आप बोलते हैं : "बोध के सिंचन बिना/शब्दों के पौधे ये कभी लहलहाते नहीं, यह भी सत्य है कि/शब्दों के पौधों पर/सुगन्ध मकरन्द-भरे बोध के फूल कभी महकते नहीं,/फिर !/संवेद्य-स्वाद्य फलों के दल दोलायित कहाँ और कब होगे..?" (पृ. १०६-१०७) कहा जाता है कि कवि का स्वभाव स्त्रैण होता है। बिना चंचल मन के कविता जन्मती ही नहीं, पर विद्यासागरजी इस सत्य को अनुभवजन्य ही ज्ञापित करते हैं : 0 "स्थिर मन ही वह/महामन्त्र होता है/और/अस्थिर मन ही पापतन्त्र स्वच्छन्द होता है,/एक सुख का सोपान है एक दुःख का सो पान है।” (पृ.१०९) 0 "अपने को छोड़कर/पर-पदार्थ से प्रभावित होना ही/मोह का परिणाम है
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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