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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 195 "प्राथमिक दशा में/सम्प्रेषण का साधन कुछ भार-सा लगता है/निस्सार-सा लगता है।” (पृ. २३) पर, इसे स्वाभाविक मानकर कवि इससे घबराने की सलाह नहीं देता । वह कहता है कि सतत अभ्यास से स्वयं लेखनी विचारों, भावों की अनुचरी हो जाती है । बड़े ही सामान्य उदाहरण से अपने कथ्य को वह बोधगम्य बना देता है : “कुशल लेखक को भी,/जो नई निबवाली/लेखनी ले लिखता है लेखन के आदि में/खुरदरापन ही/अनुभूत होता है/परन्तु, लिखते-लिखते/निब की घिसाई होती जाती/लेखन में पूर्व की अपेक्षा सफाई आती जाती/फिर तो "लेखनी/विचारों की अनुचरा होती... "होती/विचारों की सहचरी होती है।” (पृ. २४) उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट होगा कि चिन्तक कवि ने भाव-सम्प्रेषण जैसी रचना-प्रक्रिया पर भी स्वतन्त्र रूप से सोचा है। सम्प्रेषण के स्वरूप-निर्धारण में वह साहित्य जगत् के पण्डितों के विचारों का हवाला नहीं देता । वह स्वानुभव, स्वचिन्तन से सम्प्रेषण का स्वरूप निर्धारण करता है । सम्प्रेषण जैसी जटिल रचना-प्रक्रिया को वह सहज भाषा में, सरल रूप से बोधगम्य बना देता है। किसी काव्य को महान् बनाता है उसका हेतु रूप कोई स्वप्न, कोई दर्शन, कोई चिन्तन । महान् स्वप्न, महान् चिन्तन, महत् लक्ष्य और उदात्त सन्देश ही महान् काव्य में व्यक्त होते हैं। क्या 'मूकमाटी' के कवि के पास ऐसा कोई दर्शन है ? इसके साथ-साथ एक महान् और श्रेष्ठ कोटि का रचना-तन्त्र भी आवश्यक है । क्या ऐसा रचना तन्त्र है इस कवि के पास ? इस रचना में चिन्तन-ही-चिन्तन है, सर्वाग्रही और सर्व-ग्राही दर्शन है, जीवन दर्शन है, कर्म दर्शन है, समाज दर्शन है, सेवा दर्शन है और साहित्य दर्शन है । कवि के पास इस विशाल भाव सम्पदा को सम्प्रेषित करने योग्य रचना तन्त्र भी है। साहित्य के अर्थ को स्पष्ट करते हुए कवि साहित्य दर्शन को भी बड़े सहज भाव से स्पष्ट कर देता है : “हित से जो युक्त-समन्वित होता है/वह सहित माना है और/सहित का भाव ही/साहित्य बाना है,/अर्थ यह हुआ कि जिसके अवलोकन से/सुख का समुद्भव-सम्पादन हो सही साहित्य वही है/अन्यथा,/सुरभि से विरहित पुष्प-सम, सुख का राहित्य है वह,/सार-शून्य शब्द-झुण्ड..!" (पृ. १११) कवि ने साहित्य की सार्थकता हितकारी' होने में माना है । अर्थात् उसका साहित्य दर्शन लोक-मंगल के दर्शन से समन्वित है। प्रथम खण्ड में माटी की प्राथमिक दशा के परिशोधन की क्रिया वर्णित है, दूसरे खण्ड में अनवधानता के कारण कार्य-सम्पादन में प्रमादवश हो गयी हिंसा से, प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न बदला लेने के भाव का क्षमा-याचना द्वारा शमन दिखाया गया है : "खम्मामि, खमंतु मे-/क्षमा करता हूँ सबको,/क्षमा चाहता हूँ सबसे,
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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