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________________ आत्म-साधना की मंगल यात्रा : 'मूकमाटी' महाकाव्य ___ डॉ. विमला चतुर्वेदी आचार्य विद्यासागरजी द्वारा रचित काव्य 'मूकमाटी' वस्तुत: प्रकृति एवं उसके विभिन्न उपकरण, जनजीवन के दृष्टान्तों के माध्यम से, जागतिक प्रतीकों के सम्बल ले, सामान्य जन की श्रमण संस्कृति की ओर अग्रसर होने एवं साधु के चरणों में पहुँचने की अध्यात्म-यात्रा है । आत्मशुद्धि प्राप्त करने हेतु, जीव की इस विकास-यात्रा को आचार्य कवि ने चार खण्डों में विभाजित किया है : १. संकर नहीं : वर्ण-लाभ, २. शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं, ३. पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन, ४. अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख । प्रथम खण्ड में कवि ने अध्यात्म-यात्रा के प्रारम्भ के लिए आवश्यक माना वर्ण का लाभ, वर्ण की शुद्धि । कृति का प्रारम्भ निशा के अवसान तथा उषा के अभ्युदय के चित्रण से होता है जो स्वत: भोग में लिप्त, सुप्त मानव की जागृति का संकेत देता है : _ "भानु की निद्रा टूट तो गई है/परन्तु अभी वह/लेटा है माँ की मार्दव गोद में/मुख पर अंचल लेकर/करवटें ले रहा है ।" (पृ. १) उषा के चित्रण के साथ ही सरिता- तट की माटी के मन का क्षोभ व्यक्त होता है । कब तक वह इस प्रकार पड़ी रहेगी। वह चाहती है इस जीवन से मुक्ति । वह पतिता है, सुख-मुक्ता, दुःख-युक्ता हैं'-कब और कैसे उसका उद्धार होगा । धरती सभी की ममतामयी माँ है। जीव-माटी की चाह, उत्कण्ठा देख वह उसे बोध देकर कहती है कि आस्था के तारों पर साधक जब साधना आरम्भ करता है, तभी जीवन सार्थकता की ओर अग्रसर होता है। उज्ज्वल हिमशिखर तक पहुँचने के लिए जिस प्रकार अथक विश्वास, लगन और निष्ठा आवश्यक है, जीव की सार्थकता के लिए, परम तत्त्व-प्राप्ति के लिए भी इनकी आवश्यकता है। उस पथ पर स्खलन की सम्भावनाएँ होती हैं किन्तु लगन और अभ्यास सहायक होते हैं। आस्था सही होने पर कुम्भकार अवश्य आएगा और इस पतिता, उपेक्षिता माटी को मंगल घट का रूप प्रदान करेगा। और प्रभात में शिल्पी का आगमन होता है। मंगल घट के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है मिट्टी की पवित्रता, जिसके लिए वह उसमें निहित कंकड़ों को बीन कर पृथक् करता है। यदि वे कंकड़ मिट्टी के साथ घुलकर एक रस हो गए होते तो उन्हें छाँटने की आवश्यकता न होती। इसके साथ ही वह दया, माया के भी स्पष्ट संकेत देता है : 0 “पापी से नहीं/पाप से/पंकज से नहीं,/पंक से/घृणा करो।" (पृ. ५०-५१) 0 “संयम की राह चलो/राही बनना ही तो/हीरा बनना है।" (पृ. ५७) इन्हीं के मध्य कुम्भक प्राणायाम भी हो जाता है । मन की ग्रन्थि दूर किए बिना अहिंसा नहीं आती, जो जीव के लिए अनिवार्य है। "धम्मो दया-विसुद्धो' (पृ. ७०), 'धम्मं सरणं गच्छामि' (पृ. ७०) आदि के दर्शन-संकेत भी समय, स्थान, भावानुसार जीव को उसकी ओर अग्रसर करते हैं । कवि स्थान-स्थान पर व्याख्या कर कहते हैं कि कलियुग हो या सत्युग-यह बाह्य नहीं, अन्तस् की दशा-स्थिति है : “सत् की खोज में लगी दृष्टि हो/सत्-युग है, बेटा !
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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