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________________ 'मूकमाटी' की शब्द - साधना प्रो. (डॉ.) गणेश प्रसाद 'मूकमाटी' आधुनिक हिन्दी काव्यजगत् की अपूर्व कृति है । सन्त कवि आचार्य विद्यासागर ने इस कृति के माध्यम से विश्व-मानवता को शान्ति, अहिंसा और अनन्त आनन्द का मार्ग दिखाया है । सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र के ‘त्रि-रत्न' के आधार पर मानव अपने कर्म - बन्धनों का क्षय कर मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है । सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और सच्चरित्रता के आचरण के साथ सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान के सहयोग से मानव अपनी आत्मा को भौतिक बन्धनों से मुक्त कर मोक्ष की प्राप्ति करते हुए अनन्त सुख, अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान और अनन्त वीर्य की प्राप्ति करने में सफल होता है । आज भौतिकता की अनपेक्षित महत्ता ने मानव जीवन को हिंसक, निर्मम, क्रूर, स्वार्थी, संकीर्ण, अविवेकी और अशान्त बना दिया है । मानव अपने लक्ष्य से भटक गया है । आचार्य विद्यासागर ने दिग्भ्रान्त, पथभ्रष्ट तथा जड़ताच्छन्न मानव को 'मूकमाटी' के काव्याध्यात्म से सत्पथ की ओर प्रवृत्त करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। 'मूकमाटी' के काव्य और अध्यात्म के आनुपातिक दुग्ध-शर्करा-सम्मिलन ने सहृदयों में अनन्त सुख का स्वादानुभव जागरित करने की दिशा में प्रशंसनीय कार्य किया है। 'मूकमाटी' में काव्य के प्रवाह में दर्शन है कि दर्शन के प्रवाह में काव्य या फिर काव्य और दर्शन का संगीतमय प्रवाह-- इस तथ्य के सम्यक् परीक्षण का आधार इस काव्य की शब्द-साधना को बनाया जा सकता है। साधना से सोए हुए शब्द जगते हैं, खोए हुए अर्थ शब्दों में वापस आते हैं, आशातीत अर्थ उस मन्त्रित शब्द में अँगड़ाई लेने लगते हैं और पारम्परिक एकप्रणालीय बोझ से बुझे हुए-से शब्द-साधना के जादू से पुन: चमक उठते हैं। कवि के अहं से बद्ध होकर शब्द-साधना केवल चौंध पैदा करती है । कवि का अहं जब 'विश्व अहं' बनता है, तो शब्द - साधना मधुमय दीप्ति बन जाती है जिसमें भागवत ध्वनि की पवित्रता और आध्यात्मिक अभिव्यक्ति की संगीतमय विस्तृति होती है । प्रस्तुत महान् कृति में आचार्य विद्यासागर की शब्द - साधना चौंध की शब्द-साधना नहीं है, अपूर्व दीप्ति की शब्द-साधना है। यही कारण है कि जैन दर्शन पर लिखी इस महाकृति में कहीं भी काव्य पर दर्शन का अतिक्रमण भा नहीं होता । दर्शन को रचनात्मक स्तर तक पहुँचाने में आचार्यश्री की शब्द-साधना महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है । आचार्य विद्यासागर की शब्द - साधना निम्नलिखित भूमिकाओं में परिलक्षित होती है : (१) शब्द - व्युत्पत्ति के क्रम में उन्होंने दार्शनिक जटिलता को काव्यात्मकता और प्रेषणीयता प्रदान की है : O O "धरती शब्द का भी भाव / विलोम रूप से यही निकलता हैधरती तीर ध/ यानी, / जो तीर को धारण करती है। या शरणागत को/ तीर पर धरती है / वही धरती कहलाती है । और सुनो ! / 'ध' के स्थान पर / 'थ' के प्रयोग से / तीरथ बनता है शरणागत को तारे सो तीरथ !" (पृ. ४५२) " कुम्भ की अर्थ-क्रिया / जल-धारण ही तो है / और सुनो ! स्वयं धरणी शब्द ही / विलोम-रूप से कह रहा है कि धरणी णीरध/ नीर को धारण करे सो धरणी नीर का पालन करे सो धरणी !” (पृ. ४५३) ..
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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