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________________ 'मूकमाटी' : अकिंचन से मंगल घट बनने की मुक्ति यात्रा प्रो. (डॉ.) उमा शुक्ल आधुनिक काव्य साहित्य की एक अनुपम उपलब्धि है 'मूकमाटी।' आचार्य विद्यासागरजी ने इसमें मुक्त छन्द का प्रवाह और काव्यानुभूति की अन्तरंग लय समन्वित कर एक अध्यात्म काव्य का रूप दिया है । वे धरती पर आध्यात्मिकता का नव स्रोत बहाने वाले तत्त्वमनीषी हैं। इस काव्य को कवि ने चार खण्डों में विभक्त किया है : (क) संकर नहीं : वर्ण-लाभ; (ख) शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं; (ग) पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन; (घ)अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख । जीवन के कुछ मूलभूत सिद्धान्तों के उद्घाटन हेतु इस कृति का सृजन हुआ है । चैतन्य शक्ति को उभारना एवं जागृत करना इस कृति का लक्ष्य है । कबीर ने ललकार कर कहा था : "ऊँचै कुल क्या जनमियाँ जे करणी ऊँच न होइ।" जन्म के बाद आचरण के अनुरूप उनमें उच्च-नीचता रूप परिवर्तन को कवि ने स्वीकारा है। इसलिए संकर-दोष से बचने के साथ-साथ वर्ण-लाभ को मानव-जीवन का औदार्य व साफल्य माना है। जैसी संगति मिलती है, वैसी गति होती है : “वर्ण का आशय/न रंग से है/न ही अंग से/वरन् /चाल-चरण, ढंग से है। यानी !/जिसे अपनाया है/उसे/जिसने अपनाया है/उसके अनुरूप अपने गुण-धर्म-/"रूप-स्वरूप को/परिवर्तित करना होगा।” (पृ. ४७) कवि ने प्रथम खण्ड में माटी के व्याज से समय और व्यक्ति के विषय में कहा है कि व्यक्ति निष्ठा, लगन, श्रम और कठिन अभ्यास से वर्ण-लाभ कर सकता है, क्योंकि 'नर का गुण उज्ज्वल चरित्र है, धन धाम नहीं।' आधुनिक युग की यह एक ज्वलन्त समस्या है जहाँ कुल और जाति व्यक्ति के विकास में बाधक या साधक बनते हैं। जाति-पाँति के कारण भारतीय समाज में योग्य और कर्मठ व्यक्तियों की उपेक्षा, निरादर आम बात है। यह सामाजिक दोष है जो सच्चे गुणों का आदर न करके जाति के आधार पर ऊँच-नीच का निर्धारण करता है । यही मान्यता आने वाले युग में मानवता के प्रसार में सहायक मानी जाएगी। महाकवि ने पुकार-पुकार कर कहा है कि व्यक्ति जन्मना नहीं, कर्मणा मानवमहत्त्व का आराधक है। कवि कहता है कि उद्यम से विधि का अंक उलट जाता है। कुम्भकार माटी को मंगल घट का सार्थक रूप देना चाहता है । 'सार्थकता' से पहले उसे कूट-छानकर कंकरों को हटाना ज़रूरी है। ___मनुष्य तो तभी अपने को लघुतम मानता है जब प्रभु को गुरुतम मानकर पहचान लेता है। इसीलिए साधना की आवश्यकता है । पर्वत की ऊँचाई को पाने के लिए चरणों का प्रयोग करना पड़ता है। साधना-स्खलित जीवन में अनर्थ ही सम्भव है । 'गीता' की कर्मण्यता का सन्देश भी इन शब्दों में मुखरित हुआ है : "किसी कार्य को सम्पन्न करते समय अनुकूलता की प्रतीक्षा करना/सही पुरुषार्थ नहीं है।” (पृ. १३) अपनी जीवन-यात्रा का सूत्रपात करने के लिए भगवान् के चरणों में समर्पण करना होगा। इस यात्रा में सहकार का भाव आना भी बहुत आवश्यक है । दया का आना ही मनुष्य की सार्थकता है :
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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