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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 21 करते हैं । इन तत्त्वों का समन्वय वस्तुतः काव्य में एक अन्य प्रकार की ही रसात्मकता को उत्पन्न कर देता है । सर्वोदयवाद और समाजवाद की दिशा साहित्य के सही अर्थ को स्पष्ट करती है । आचार्यश्री ने साहित्यिक भाव-बोध का प्रश्न उठाते हुए पश्चिमी सभ्यता और भारतीय सभ्यता के बीच महत्त्वपूर्ण एक विभेदक रेखा खींची है (पृ. १०२ - १०३) और शोध-बोध की बात करते हुए (पृ. १०७) साहित्य के मार्मिक अर्थ को स्पष्ट किया है (पृ. १११) । तदनुसार हित से समन्वित होना साहित्य की आत्मा है। 'मूकमाटी' की भी यही आधारर-भूमि है । अत: वह दार्शनिक महाकाव्य है, दर्शन और अध्यात्म का समन्वित रूप है, सांस्कृतिक परम्परा की जीवन्त महाकृति है । इस महाकृति में महाकवि ने जैनदर्शन को सृजनात्मक स्वर देने का प्रयत्न किया है। उनकी सृजन-प्रक्रिया बाह्य यथार्थ की आभ्यन्तरीकरणप्रक्रिया है, जो स्वानुभव पर आधारित है । उन्होंने युग-जीवन के वैषम्य को देखा - समझा-परखा है, नैतिक संकट की उन्हें अनुभूति हुई है । इसलिए 'मूकमाटी' जैसे दार्शनिक महाकाव्य का सृजन हो सका है। ऐसी दार्शनिक महाकृति की सैद्धान्तिक और व्यावहारिक समीक्षा करना सरल नहीं होता। एक ही काव्य में सिद्धान्त और काव्य, दोनों का सम्पुट होना एक विशिष्ट प्रतिभा का प्रदर्शन है जो 'मूकमाटी' में मुखर हुआ है । सिद्धान्त यथार्थ और वस्तुवादी व्याख्या करता है, अनुगम विधि का उपयोग करता है जिसमें वस्तुओं के अध्ययन के आधार पर सिद्धान्त बनाए जाते हैं और व्यवहार प्रयोग की बात करता हुआ निगमन विधि को अपनाता है । यहाँ दोनों विधियों का प्रयोग हुआ है । समाजशास्त्र, मनोवैज्ञानिक आदि सिद्धान्तों की भी मीमांसा इस महाकृति में यथास्थान की गई है और अन्त में निमित्त और उपादान का मूल्यांकन किया गया है । महाकवि का यह एक क्रान्तिकारी प्रयोग है, बिलकुल अभिनव प्रयोग जिसने साहित्य और काव्य के क्षेत्र में शृंगार के स्थान पर विरागता की प्राण-प्रतिष्ठा की और जीवन की व्यापकता को स्पष्ट किया । यह प्रयोग एक विशिष्ट सांस्कृतिक दृष्टि का प्रयोग है, सिद्धान्त और जीवन-निष्ठा का प्रयोग है, व्यक्तित्व की भावना का प्रयोग है। इस विरल प्रयोग में समीक्षक का तादात्म्य सम्बन्ध होना काव्य के प्रति न्याय करने के लिए अत्यावश्यक है । यह काव्य सामाजिक चेतना पर आधारित है, वह भी नकारात्मक नहीं, सकारात्मक है । यथोचित परिवेश और वातावरण को प्रस्तुत करते हुए कवि ने यह अवधारणा दी है कि व्यक्ति को अपनी उपादान शक्ति पर विश्वास करना चाहिए और निमित्त का आश्रय लेकर उसे उन्मेषित करना चाहिए। आध्यात्मिक क्षेत्र में आकर स्व और पर का भेदविज्ञान प्राप्त करना ही उसका लक्ष्य बन जाता है। इसलिए नियति और पुरुषार्थ का पारम्परिक अर्थ भी कवि की दृष्टि में बदल गया : “ 'नि' यानी निज में ही / 'यति' यानी यतन - स्थिरता है अपने में लीन होना ही नियति है / निश्चय से यही यति है, / और 'पुरुष' यानी आत्मा - परमात्मा है / 'अर्थ' यानी प्राप्तव्य - प्रयोजन है आत्मा को छोड़कर / सब पदार्थों को विस्मृत करना ही सही पुरुषार्थ है ।" (पृ. ३४९) नियति और पुरुषार्थ की यह चेतना व्यक्ति को जीवन का मूल्य समझने के लिए एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है, आत्मिक साक्षात्कार है, निस्पृहता का उद्भावन है और सामाजिक चेतना की सक्रियता है । आज की विसंगतियों से मुक्त होने के लिए कल्याण के इच्छुक मुमुक्षुओं के लिए यह एक निर्विवाद सुन्दर पथ है जो मानवता की असीम भावभूमि का संस्पर्श करता हुआ अविरल गति से नए-नए क्षितिजों को उद्घाटित करता चला जाता है।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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