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________________ 478 :: मूकमाटी-मीमांसा पात्र परिचय : १. महाकाव्य की नायिका मूक माटी है । माटी कुम्भ के रूप में साकार होकर, भक्त सेठ की सहकारी बनकर, 'भू-सत्तायाम्' की प्रतिष्ठापना की विशेषताओं में प्रदर्शित होती है। २. वीतराग श्रमण के प्रतीक 'कुम्भकार' महाकाव्य के नायक हैं। क्षमा के साक्षात् मूर्ति कुम्भकार माटी को मंगल कलश का रूप देते हैं । अन्त में निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधु से सम्बोधन प्राप्त करते ही हैं। ३. श्रमण सन्त विषय-कषायादिजन्य विकारों के विजेता हैं। ४. जैन श्रावक का प्रतीक जिनेन्द्र भक्त सेठ है । वह कुम्भ के सहारे आगे बढ़कर, गुरु तारण-तरण__ जहाज़ से मुक्ति की कामना करते हैं। उनके साथ उनका परिवार भी है। ५. आचार्यजी ने आतंकवाद का मानवीकरण किया है । उसे विकराल रूप में चित्रित किया गया है। रस परिचय : रस काव्य की आत्मा है- 'रसात्मकं वाक्यं काव्यम्'। इसमें प्रधान रस शान्त रस' है, अन्य रस गौण हैं। किसी महापुरुष के दर्शन, तत्त्वज्ञान और वैराग्य आदि से शान्त रस की उत्पत्ति होती है। प्रकृति चित्रण : मानव सौन्दर्य प्रेमी है। प्रकृति का सौन्दर्य शाश्वत होता है । काव्य में प्रकृति चित्रण- आलम्बन, उद्दीपन, आलंकारिक, मानवीकरण, उपदेशात्मक आदि रूपों में चित्रित है। भाषा व शैली : महाकाव्य में शैली की सम्प्रेषणीयता, प्रसंग गर्भता और व्यंजना शक्ति आदि विशेषताएँ उपलब्ध हैं। भाषा ओज, प्रसाद, माधुर्यगुण पूर्ण खड़ी बोली हिन्दी है । आचार्यजी की भाषा प्रांजल, सरस एवं भावानुकूल प्रवाहमयी है । यह मुहावरों, कहावतों, लोकोक्तियों व सूक्तियों का कोश बन गया है। नामकरण : 'मूकमाटी' काव्यशास्त्रीय मान्यतानुसार सफल एवं सार्थक नामकरण है। 'मूकमाटी' नामकरण कर माटी की महान् महिमा को उद्घाटित किया है । छन्द-अलंकार : इसकी रचना मुक्तक छन्द में हुई है। यत्र-तत्र तुकान्त व अतुकान्त आदि छन्द योजना भी दिखाई देती है। इसमें दोहा, वसंततिलका आदि छन्द भी हैं। संगीतात्मकता और उसके अनुरूप प्रवाहमयी कोमलकान्तपदावली, भावों की एकता, लयात्मकता भी इसमें भरपूर है । आचार्यजी ने उपमा, उत्प्रेक्षा, यमक, रूपक, अन्योक्ति, अनुप्रास, प्रश्नालंकार, श्लेष आदि अलंकारों का प्रयोग उचित स्थान पर करके कृति को अलंकृत किया है। 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता:'- कथितानुसार आचार्यजी ने 'मूकमाटी' में नारी महिमा का विशद वर्णन किया है। इसमें भारतीय संस्कृति के मूलमन्त्र 'सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया की अभिव्यक्ति की है। तत्कालीन समाज, राजनीति और धर्म का दर्पण बन गया है 'मूकमाटी' महाकाव्य । 'जो श्रम करे सो श्रमण'- जिसने इन्द्रियों को जीत लिया, वह 'जित' या 'जिन' है, ऐसा श्रमण किसी जाति, वर्ग, समाज या धर्म तक ही सीमित नहीं रह सकता, अपितु वह सम्पूर्ण जीवन, मानव जाति में हो सकता है। सन्त कवि आचार्य श्री विद्यासागरजी की यह प्रौढ़तम काव्यकृति विश्व साहित्य की एक अनुपम कड़ी है।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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