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________________ मूकमाटी-मीमांसा : : 425 क्या धन-संवर्द्धन हेतु / शर्म ही बेची जा रही है ?" (पृ. २०१ ) इस निर्मम सचाई में सामाजिक सरोकारों की तरफ इशारा तो है ही, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों के ह्रास के तमाम सवालों पर भी चिन्तन है । संस्कृति और समाज को लेकर यह चिन्ता सम्पूर्ण मानव समाज के कल्याण के परिप्रेक्ष्य में आदमियत की परख और उसकी नियति को सजग चुनौती है जो सब कुछ मूक भाव से सहन कर रहा है। तपोनिष्ठ सन्त, समर्पित रचनाकार और उदार दृष्टि से सम्पन्न मनीषी के समाजकल्याण से अभिप्रेत मानव के आचरण का विस्तार और आत्मबोध की साधना है। शुद्धतम भाव से सत्य का मंगल-विधान कोरी भावुकता नहीं, ऋषि की मनीषा का उल्लास और मानवीय चेतना का प्रशस्त मार्ग है । मिट्टी की आत्मकथा को आधार बनाकर धर्म, समाज एवं संस्कृति आदि के प्रसंगों की उद्भावना और लोक जीवन के ताने-बाने में दार्शनिकता से जुड़े सवालों पर विमर्श एक वृहत्तर रचनात्मक मूल्य का रेखांकन है। यहाँ वे सवाल हैं जो अस्तित्वगत अर्थों से विकसित होते हुए मानवीय सम्बन्धों को नकारते हैं । यह प्रश्न अबूझ पहेली बनकर बारव्यक्ति और समाज के दो ध्रुवों पर खड़े व्यक्ति की जिजीविषा का अभिषेक आँसुओं से करता है । 'मूकमाटी' की शब्द साधना में कवि माया के कुहासे और बादलों की घटाटोप में छिपी उस जीवन की सच्चाई ढूँढ़ता है जो कड़वी है पर शाश्वत एवं अन्तर्विरोधों से अलहदा है। यह सवाल ही कवि और पाठक की जागरूकता को आश्वस्ति देता है । स्वप्निल कामना से मुक्त सत्य की साधना और उसकी सम्भावनाशील ऊँचाई प्राप्त करने की ललक पैदा करता । व्यक्ति व समाज के व्यावहारिक जीवन पर केन्द्रित मूल्यों को भी आध्यात्मिक उत्कर्ष प्रदान कर कवि उनकी महत्ता अनन्तगुना बढ़ा देता है । 1 उल्लेखनीय है कि आचार्यश्री ने मानव जीवन का ज़िक्र बहुत सहज तरीके से करते हुए उनके अन्तर्विरोध का निरूपण एक जागरूक समाजशास्त्री के रूप में किया है। ऐसा करते हुए व्यक्ति व समाज के अन्दर के ज़ख्म को भी कुरेदने की भरपूर कोशिश 'मूकमाटी' में है । उदाहरणार्थ : " सहधर्मी सजाति में ही / वैर वैमनस्क भाव / परस्पर देखे जाते हैं ! श्वान श्वान को देख कर ही / नाखूनों से धरती को खोदता हुआ ता है बुरी तरह ।” (पृ. ७१) भारतीय समाज संस्कृति की उज्ज्वल धारा से निर्मल होता है । उसकी छवि को संवेदना की सचाई निरन्तर परखती है। देश-काल की बाधाओं का अतिक्रमण कर ऋषि-मुनियों की प्रखर मनीषा व्यक्ति और समाज को आरोग्य और बोध की शक्ति से प्राणवान् बनाती है। ऐसा करते हुए जीवन और जगत् की व्यापक तस्वीर उनके सामने होती है । करुणा - कामना से प्रदीप्त आचार्यश्री का कंथन द्रष्टव्य है : : 'वसुधैव कुटुम्बकम्'/ इस व्यक्तित्व का दर्शन - / स्वाद - महसूस इन आँखों को / सुलभ नहीं रहा अब ..!... ... हाँ-हाँ ! / इतना अवश्य परिवर्तन हुआ है / कि / "वसुधैव कुटुम्बकम्" इसका आधुनिकीकरण हुआ है / वसु यानी धन- द्रव्य 66 धा यानी धारण करना / आज / धन ही कुटुम्ब बन गया है धन ही मुकुट बन गया है जीवन का ।” (पृ. ८२)
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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