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________________ 412:: : मूकमाटी-मीमांसा : आस्था ही वह मूल है जो आचरण को पुष्पित, पल्लवित, सफल बनाती है । उसको ही सींचना है : "आस्था के बिना आचरण में / आनन्द आता नहीं, आ सकता नहीं । फिर, आस्थावाली सक्रियता ही/निष्ठा कहलाती है ।" (पृ. १२० ) "आघात मूल पर हो / द्रुम सूख जाता है, दो मूल सलिल तो / पूरण फूलता है।” (पृ. १२५) ם ם आचार्यजी की करुणा से भरपूर कोमल दृष्टि गरीबों की टपकती कुटिया से लेकर जीवन के सभी पक्षों पर गई । कहीं-कहीं पर जीवन में काम आने वाली बड़ी ही साधारण बातों का उल्लेख है : O 44 'आधा भोजन कीजिए / दुगुणा पानी पीव । तिगुणा श्रम चउगुणी हँसी / वर्ष सवा सौ जीव !” (पृ. १३३) 66 'आमद कम खर्चा ज्यादा / लक्षण है मिट जाने का कूबत कम गुस्सा ज्यादा / लक्षण है पिट जाने का !” (पृ. १३५) जीवन के कटु सत्य का उल्लेख बड़ी ही सीधी भाषा में एक स्थल पर किया गया है : O "भोग पड़े हैं यहीं / भोगी चला गया, योग पड़े हैं यहीं/योगी चला गया । " (पृ. १८० ) मन्त्र के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की बातें कही जाती हैं । आचार्यजी ने इस सम्बन्ध में बड़े पते की बात कही " मन्त्र न ही अच्छा होता है / ना ही बुरा / अच्छा, बुरा तो अपना मन होता है / स्थिर मन ही वह / महामन्त्र होता है ।" (पृ. १०८ - १०९) मोक्ष से सम्बन्धित स्थापना भी बड़ी सहज, सटीक है : " अपने को छोड़कर / पर - पदार्थ से प्रभावित होना ही मोह का परिणाम है / और / सब को छोड़कर अपने आप में भावित होना ही / मोक्ष का धाम है।” (पृ.१०९-११०) मन का अस्तित्व ही मनुष्य को अनेक प्रकार की विकृतियों से जकड़ता है । अहंवादी बनाता है । विनय से रखता है। 'मूकमाटी' में बड़ी सूझ-बूझ से कहा गया है : "मन की छाँव में ही /मान पनपता है मन का माथा नमता नहीं / न - 'मन' हो, तब कहीं नमन हो 'समण' को / इसलिए मन यही कहता है सदानम न ! नम न !! नम न !!!" (पृ. ९७ ) जन-मानस में प्रचलित अनेक कहावतों और सूक्तियों का भी आकर्षक प्रयोग इस ग्रन्थ में मिलता है :
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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