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________________ 400 :: मूकमाटी-मीमांसा अविभाज्य ही बना रहता है। अन्तत: वह एकाकार हो जाता है इस कृति के कथानक, चिन्तन, दर्शन और अध्यात्म से। 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' अध्याय में प्ररूपित शब्द से बोध और बोध से शोध होना एक वैज्ञानिक नियम की भाँति होनेवाली प्रक्रिया है। मनुष्य की चेतना पर उसी भाँति 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' की सात्त्विक क्रिया है। दोनों की क्रियाएँ अलग-अलग होकर परस्पर पूरक हैं। 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' और 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' नामक ये चारों अध्याय हमारी सोच, अर्थवत्ता को शाश्वत निर्झरणी की भाँति अविरल गतिशीलता देकर मानवीय चेतना को मन्दाकिनी के जल के समान पावन करते हैं। 'मूकमाटी' को महाकाव्य मानने में तनिक भी कोई संकोच की बात नहीं है । महाकाव्य के निर्धारित सर्वमान्य लक्षणों के आधार पर जितनी बार भी बाँचा, जाँचा या परखा जाए पर कभी भी, कहीं भी, किसी भी दशा में उसके महाकाव्यत्व पर कोई सन्देह नहीं हो सकता किंचित अंश में भी। नायक धीरोदात्त है - चाहे शिल्पी हो या आचार्यश्री की वाणी से मुखर होती गुरु की संचेतना में प्रतिष्ठापित करते स्वयं आचार्य विद्यासागर । कथानक एकदम अकल्पित, ऐतिहासिक और कथा भी प्रख्यात है। 'मूकमाटी' में जहाँ तक रस उत्पत्ति की बात है तो कहीं भी, किसी भी विधि में रसों की कमी नहीं है। महाकाव्य में श्रेष्ठ तत्त्व पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति मानी गई है । अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष के लिए 'मूकमाटी' में जो सन्देश है उसमें पूरी-पूरी व्यावहारिकता है, यथार्थ है, कल्पना और कोरा आदर्श नहीं। इस सन्देश को हृदयंगम कर आचरण में उतारने में काफी सुगमता हो जाती है, मात्र आवश्यकता है शब्द से बोध लेने की। नारी का सम्मान : स्त्री से नारी, अबला, सुता, माँ, पत्नी, दुहिता, कुमारी आदि विभिन्न रूपों में उसके गुणों की सराहना करते हुए उसके शील और शालीनता को उसका आभूषण मानकर नारी की प्रकृति, स्वभाव और नारीत्व को व्यक्त किया गया है। “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः" की व्याख्या को साकार कर दिया है 'मूकमाटी' में। 'मूकमाटी' के जीवन दर्शन पर विचार करें तो हम पाते हैं कि इस काव्य कृति का जीवन दर्शन, लोक व्यवहार आचार-विचार से जुड़ा हुआ है। हमारे नित्य का जीवन, कार्य व्यापार, क्रिया कलाप और सोच-विचार भी 'मूकमाटी' में विवेचित है । मच्छर के माध्यम से किया गया विवेचन बड़ा ही रोचक, मनोरंजक, मार्मिक और गम्भीर है । घर के भीतर से लेकर बाहर तक के समाज के अनेक सरोकारों पर कहीं तीखे प्रहार हैं तो कहीं बड़ी सादगी से वे अपनी बात कह जाते हैं। सामाजिक समस्याओं पर वे केवल फबती ही नहीं कसते, अपितु वे अपनी दृष्टि से उसका व्यावहारिक निदान और समाधान भी देते हैं। चाहे हमारी न्याय प्रक्रिया हो या कोई सामाजिक परम्परा अथवा निजी. घरेल और सामाजिक जीवन की समस्याएँ ही क्यों न हों, उन सब के लिए भी उनका दिशा दर्शन बड़े काम का है। उसे गाँठ में बाँधकर उस पर अमल करने की आवश्यकता है। आम आदमी के जीवन से जुड़ा होकर यह ग्रन्थ सामाजिक है, राष्ट्रीयता का पोषक है तथा आध्यात्मिक चिन्तन का उन्नायक और मुक्तिदाता भी है। 'मूकमाटी' के तत्त्व चिन्तन में जो सहज दार्शनिकता है वह केवल जैन दर्शन तक ही सीमित नहीं है। उसमें वैदिक दर्शन है, न्याय, मीमांसक और वैशेषिक दर्शन भी समाहित है। कुम्भ की रचना से लेकर श्रद्धालु नगर सेठ के गुरु दर्शन और फिर आतंकवादियों को ठिकाने लगा कर पुन: मंगल घट उसी ठिकाने पर आते-आते अपना जीवन पथ पूरा कर लेता है । घट की इस अनन्त यात्रा में अनेक ऐसे प्रसंग हैं जिनमें जीवन है और जीवन दर्शन भी। भारतीय दर्शन का सम्पूर्ण समावेश इस कृति में किया गया है। 'मूकमाटी' की कथा जैन दर्शन के दृष्टिकोण से भी सम्यक् है, जो जैन ग्रन्थों में भी वर्णित है।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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