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________________ 398 :: मूकमाटी-मीमांसा स्व-पर्याय और पर-पर्याय में भी वस्तु की सत्ता विद्यमान होती है । वस्तुओं के ऐसे रूप को जानने के लिए उनके पारस्परिक सम्बन्ध को जानना जरूरी होता है । देश, काल, परिस्थितियों में अनुशासित धर्म गुण तथा पर्याय से सुयुक्त वस्तु को 'द्रव्य' कहते हैं । चेतनाशक्ति सम्पन्न द्रव्य को 'जीव' कहते हैं । जीव कर्ता, भोक्ता और ज्ञाता होता है । जीव ही वस्तुओं को जानता और प्रकाशित करता है। श्रेष्ठ देव परम इष्ट परमात्मा, भगवान् अथवा ईश्वर ही जैन दर्शन की परम सत्ता है किन्तु जगत् गति से इनका कोई सम्बन्ध नहीं होता है । वे सब जगत् से वीतरागी हो जाते हैं परे होकर । यहाँ यह निष्कर्ष निकलता है कि 'मूकमाटी' के निमित्त आचार्यश्री ने जिन-जिन दर्शनों का समावेश अपनी काव्य चिन्तनधारा में किया है, उसमें न्याय, वैशेषिक और वैदिक दर्शन की झलक भी यहाँ देखी जा सकती है। जैन सम्मत परमात्मा / अर्हत् परमेष्ठी का स्वरूप अवलोकनीय है : "जो मोह से मुक्त हो जीते हैं / राग- रोष से रीते हैं / जनम-मरण - जरा - जीर्णता जिन्हें छू नहीं सकते अब / क्षुधा सताती नहीं जिन्हें जिनके प्राण प्यास से पीड़ित नहीं होते, / जिनमें स्मय - विस्मय के लिए पल-भर भी प्रश्रय नहीं, / जिन्हें देख कर / भय ही भयभीत हो भाग जाता है सप्त भयों से मुक्त, अभय - निधान वे / निन्द्रा - तन्द्रा जिन्हें घेरती नहीं, सदा-सर्वथा जागृत - मुद्रा / स्वेद से लथ-पथ हो / वह गात्र नहीं, खेद-श्रम की / वह बात नहीं; / जिन में अनन्त बल प्रकट हुआ है, परिणामस्वरूप / जिन के निकट कोई भी आतंक आ नहीं सकता जिन्हें अनन्त सौख्य मिला है." सो / शोक से शून्य, सदा अशोक हैं जिनका जीवन ही विरति है / तभी तो / उनसे दूर फिरती रहती रति वह; जिनके पास संग है न संघ, / जो एकाकी हैं, / फिर चिन्ता किसकी उन्हें ? सदा-सर्वथा निश्चिन्त हैं, / अष्टादश दोषों से दूर ''!” (पृ. ३२६-३२७) सत्य, शिव और सुन्दर तथा सत् चित् आनन्द की यही दशा वैदिक दर्शन के आधार पर मोक्ष की स्थिति है । मनुष्य की ऐसी मुक्तावस्था उसे पारब्रह्म परमेश्वर, परम सन्त बनाकर ईश्वर में लीन कर देती है। ऐसे में सन्त समागम से जीवन धन्य और सार्थक हो जाता है और फिर उसे संसार असार लगने लगता है । गुरु, उपदेशक, आचार्य, पादरी, शेख, मौलवी या ग्रन्थी को उस परम सत्ता से परिचित कराने का एक सूत्र माना है। गुरु के बिना ज्ञान की असम्भाव्यता को आचार्यश्री ने स्वयं ही स्वीकारा है : " सन्त समागम की यही तो सार्थकता है संसार का अन्त दिखने लगता है।" (पृ. ३५२) मुहावरे और सूक्तियाँ : भाषा में मुहावरे जहाँ कथ्य की सम्प्रेषणीयता को आसान और हृदयग्राही बनाते हैं, वहीं भाषा को असरदार भी बनाते हैं। मुहावरों का लक्ष्यार्थ एक अनूठा अर्थ देकर पाठक को आनन्दित करता है । 'मूकमाटी' में कुछ मुहावरे और सूक्तियों का बड़ा ही श्लाघनीय प्रयोग किया है कवि ने, जिससे कवि की लोकदृष्टि की व्यापकता तो प्रमाणित होती ही है, उसे लोक के अधिकाधिक निकट भी ले जाती है, जैसे : 0 " टालने में नहीं / सती-सन्तों की / आज्ञा पालने में ही
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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