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________________ 382 :: मूकमाटी-मीमांसा कृपा रूपी जलधारण की क्षमता नहीं होती और न तो उनकी कठोरता ही विनम्रता में बदलती है। साधना की यह प्रक्रिया केवल माटी या चेतन इकाई तक ही सीमित नहीं रहती, अन्य में भी होती है। इसमें उसका उपादान कारक रूप वह स्वयं तो है ही, साथ ही निमित्त रूप सम्पूर्ण प्रकृति और अन्य चेतन शक्ति भी गतिशील हो जाती हैं। इस प्रकार यह प्रक्रिया एक ही समय दो स्तरों पर चलती है जिससे तमाम ग्रन्थियाँ निर्ग्रन्थ हो जाती हैं। यह ग्रन्थि ही मूलत: हिंसा की सम्पादिका है और निर्ग्रन्थ स्थिति में अहिंसा का विकास होता है। इस महाकाव्य के दूसरे खण्ड – 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' में साधना के विभिन्न सोपानों और उनकी जटिलताओं का वर्णन किया गया है। इसके प्रभाव से अचेतन माटी मात्रानुकूल निर्मल जल से भीगकर कोमल हो जाती है। उसके करुणामय कण-कण में 'नव नूतन परिवर्तन' होता है और उसके तन में चेतना का निरन्तर नर्तन होने लगता है, क्योंकि पुरुष-आत्मा का प्रकृति में रमना ही मोक्ष है। साधना के इस क्रम में समाज के कण्टक विखण्डित होते हैं. टट जाते हैं। शिल्पी माटी का मान, दर्प, अहंकार आदि विभावों को कचल कर. रौंद कर उसे स्निग्ध बना देता है जिससे कि वह साधना की उच्चतर क्रियाओं के योग्य बन जाती है। वह माटी पावन घट के रूप में परिवर्तित हो निखर उठती है । साधना के इस कठिन सोपान पर भी माटी में कुछ न कुछ अज्ञानता का जल शेष रह जाता है, जिसके कारण उसे फिर प्रचण्ड अनल की ज्वाला में दग्ध होना पड़ता है। तीसरे खण्ड 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' में इस घट की अगली विकास कथा को व्यंजित किया गया है। वास्तव में पुण्य कर्म के उपरान्त ही श्रेयस्कर उपलब्धियाँ मिलती हैं। यहाँ मेघ से 'मेघ मुक्ता' का अवतरण साधना के बाद भौतिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धि एवं अलौकिक आनन्द की अनुभूति का परिचायक है। कुम्भकार का प्रांगण अर्थात् यह सम्पूर्ण सृष्टि आनन्द रूपी मुक्ता की वर्षा से परिपूर्ण हो जाता है । यदि इस उपलब्धि को उचित पात्र के अतिरिक्त कोई शक्तिशाली व्यक्ति, जैसे राजा आदि बलपूर्वक प्राप्त करने की चेष्टा करता है तो प्राकृतिक शक्तियाँ क्षुब्ध अथवा कुपित हो जाती हैं और ऐसे व्यक्ति को विनाश की ओर अग्रसर करा देती हैं। चौथा खण्ड 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' है जिसमें साधना की चरम परिणति के रूप में घट को प्रज्वलित अवा में तपने का चित्रण किया गया है । अनल का स्पर्श पाकर घट की काया कान्ति जल उठती है किन्तु दूसरी ओर उसकी आत्मा उज्ज्वल होकर सहज शान्ति और आनन्द से परिपूर्ण भी हो जाती है। कुम्भकार इस पके हुए पूर्ण घट को श्रद्धालु नगर सेठ को समर्पित कर देता है जिससे कि इसमें पावन जल भर कर गुरु का पाद-प्रक्षालन किया जा सके । और इसी के साथ साधु के आहार दान की प्रक्रिया का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। दूसरी ओर स्वर्ण-कलश को इस मिट्टी के घट से ईर्ष्या होने लगती है, क्योंकि यह मिट्टी का घट अपनी साधना के कारण अधिक सम्मानित हो गया है । स्वर्ण कलश अपने आतंकवादी दल के द्वारा गृहस्थ सेठ परिवार में विप्लव मचा देता है। घट के आश्रय से गृहस्थ परिवार वहाँ से निकल कर नदी के उस पार चला जाता है, जबकि आतंकवादी दल नदी की धारा में डूबने-उतराने लगता है। उसे भी कुम्भ की प्रेरणा पर सेठ परिवार आश्रय देता है । और अन्त में सन्त के द्वारा देशना या उपदेश दिया जाता है । तन, मन और वचन -- ये सब बन्धन हैं । इनसे छूट जाना ही मोक्ष है । फलश्रुति के रूप में इस महाकाव्य का प्रमुख लक्ष्य जैन धर्म-दर्शन और उसके मूल सिद्धान्तों एवं साधना के विविध सोपानों की पुनर्व्याख्या करना है। आरम्भ में ही माटी को सम्बोधित करती हुई धरती कहती है कि जल की बूंदें विषधर के मुख में पड़ कर विष और सीप में गिरकर मोती बन जाती हैं, क्योंकि संगति के अनुरूप ही जीव के मन और बुद्धि का विकास होता है । और जब जीवन आस्था से पूरी तरह जुड़ जाता है तो उसका मार्ग स्वयं प्रशस्त होने लगता है : "...जीवन का/आस्था से वास्ता होने पर/रास्ता स्वयं शास्ता होकर
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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