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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 377 स्थिरप्रज्ञ है तथा जल अस्थिर, चंचल, अचिर । ज्ञानी माटी से मिल कर अज्ञानी जल ने प्राणवत्ता पाई है । अस्थिर तथा अचिर को स्थिरता और चिरता मिली है । यही उसका नया कायाकल्प है, नूतन परिवर्तन है । कवि अपनी दर्शनपरक दृष्टि का परिचय देते हुए चेतना के चिरन्तन नर्तन की बात कहता है : "माटी के प्राणों में जा,/पानी ने वहाँ/नव-प्राण पाया है, ज्ञानी के पदों में जा/अज्ञानी ने जहाँ/नव-ज्ञान पाया है। अस्थिर को स्थिरता मिली/अचिर को चिरता मिली/नव-नूतन परिर्वतन ! तन में चेतन का/चिरन्तन नर्तन है यह/वह कौन-सी आँखें हैं, किस की, कहाँ हैं जिन्हें सम्भव है/इस नर्तन का दर्शन यह ?” (पृ. ८९-९०) इस दूसरे खण्ड में कवि ने अनेक चरणों तथा आयामों में अपना मन्तव्य अंकित किया है। पूरे काव्य में कवि ने प्रकृति की छवि का भी चित्रण किया है। प्रकृति का परिवेश किस प्रकार वातावरण को प्रभावित करता है, ऋतुएँ प्रकृति में क्या परिवर्तन लाती हैं, आदि तथ्यों का चित्रण कवि ने बड़े मनोयोग से किया है। बीच-बीच में माटी और शिल्पी के बीच वार्तालाप होता रहता है । इस कथोपकथन से कथा का प्रसंग तो आगे बढ़ता ही है, साथ ही कथ्य और तथ्य दोनों स्पष्ट होते हैं तथा पाठक को काव्य की मूलचेतना को समझने में सरलता होती है। कवि ने यहाँ अपनी दार्शनिक और चिन्तनमय दृष्टि का परिचय दिया है । माटी का सम्बोधन कितना चिन्तनमय और दर्शनमय है : "अरे सुनो !/कुम्भकार का स्वभाव-शील/कहाँ ज्ञात है तुम्हें ? जो अपार अपरम्पार/क्षमा-सागर के उस पार को/पा चुका है क्षमा की मूर्ति/क्षमा का अवतार है वह ।” (पृ. १०५) इस खण्ड में शृंगार, वीर आदि नव रसों की व्याख्या तथा आकलन किया गया है । शृंगार और वीर आदि रसों की मौलिक व्याख्या भी मिलती है । माटी की यात्रा-व्याख्या में गणितीय संयोग भी कवि ने किया है जो मौलिक अवधारणा है। शब्दों का मार्जन- परिष्करण इस खण्ड में अधिक दिखाई देता है। बोध जब आचरण में उतर जाता है तब शोध का रूप धारण कर लेता है । इसकी बड़ी सुन्दर व्याख्या कवि ने अपनी लेखनी से की है । इस खण्ड में तपःपूत कवि ने तपस्या के प्रभुत्व को भी स्थापित किया है। कंचन तपकर ही कुन्दन बन जाता है। बिना तपस्या के परिष्कार सम्भव नहीं और बिना परिष्कार तथा मार्जन के सार्थकता प्राप्त नहीं हो सकती। कवि कहता है : "बिना तप के जलत्व का, अज्ञान का,/विलय हो नहीं सकता/और बिना तप के जलत्व का, वर्षा का,/उदय हो नहीं सकता तप के अभाव में ही/तपता रहा है अन्तर्मन यह अनल्प संकल्प-विकल्पों से, कल्प-कालों से।” (पृ. १७६) अनल्प संकल्प-विकल्पों से कल्प कालों से माटी की कथा अब तीसरे चरण में पहुँचती है। कवि ने इस खण्ड का शीर्षक 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' दिया है । कवि ने माटी की इस विकास कथा को अर्जन तथा उपलब्धि के धरातल पर चित्रांकित किया है । शीर्षक की स्पष्ट अभिव्यक्ति है कि पुण्य के पालन से ही पाप का प्रक्षालन होता है। प्रकृति का नियम है कि महासागर के जल से मेघ का सृजन होता है । जल ही मुक्ता और मुक्ता ही जल है। इन्हीं मुक्ताओं का वर्षण कुम्भकार के प्रांगण में होता है । वसुधा इन मुक्ताओं को पा कर सार्थक हो जाती है, लहलहा जाती
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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