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________________ 360 :: मूकमाटी-मीमांसा 66 '... खेद है कि / लोभी पापी मानव / पाणिग्रहण को भी प्राण- ग्रहण का रूप देते हैं ।” (पृ. ३८६) धन, वैभव तथा सांसारिक समृद्धि का झूठा वादा करने वाले आधुनिक गुरुओं को भी कवि सावधान कर देता है कि गुरु वचन नहीं, प्रवचन देता है। मुनि की वाणी जैसे अन्ततः आमन्त्रण देती हुई ध्वनित होती है : " क्षेत्र की नहीं, / आचरण की दृष्टि से / मैं जहाँ पर हूँ वहाँ आकर देखो मुझे,/ तुम्हें होगी मेरी / सही-सही पहचान ।” (पृ. ४८७) इस महाकाव्य की भाषा में अद्भुत शक्ति है । वह कवि के भावों और विचारों के अनुसार नया अर्थ संकेत ग्रहण करती चलती है । कवि ने स्वयं प्रचलित शब्दों को उनके मूल एवं नए अर्थ से जोड़ने का यत्न किया है। ज्ञान, विज्ञान, अध्यात्म, दर्शन, समाज, परिवार, व्यक्ति आदि समस्याओं को यथासम्भव व्यंजित करने की क्षमता भाषा प्रयोग के कौशल से सम्भव हुई है । यह मात्र दर्शन का काव्यात्मक रूपान्तरण नहीं है बल्कि जैन दर्शन की आधुनिक जीवन और जगत् के परिप्रेक्ष्य में सार्थकता की नूतन तलाश है । कवि ने निर्जीव एवं जड़ पदार्थों में जीवन्तता पैदा की है, उन्हें पात्रता प्रदान की है और जीवन के महान् सन्देश को मुखरित किया है। सरिता, धरती, मिट्टी, लकड़ी, आग, पानी, नाग, हाथी, कुम्भकार, सेठ अर्थात् चेतन-अचेतन सभी का पारस्परिक संवाद महाकाव्य के मंच पर घटित होता है । महाकवि की कल्पना का कमाल है कि उसने जड़ता में भी प्राण फूँककर स्फूर्ति पैदा कर दी। शिल्प की दृष्टि से यह हिन्दी साहित्य में एक नई कड़ी जोड़ने वाली काव्य कृति है । संवेदना, पात्र कल्पना एवं पृ. ८ और यह भी देखदलदल में बदल जाती है। O
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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