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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 349 देखा जा रहा है। प्रत्यक्ष !/और सुनो !/बाहरी लिखावट-सी भीतरी लिखावट/माल मिल जाये,/फिर कहना ही क्या !/यहाँ" तो.. 'मुँह में राम/बगल में छुरी'/बगुलाई छलती है।" (पृ. ७२) आज विकृतियाँ जीवन के हर क्षेत्र में प्रविष्ट हो गई हैं। उसका मूलभूत कारण धर्म का वास्तविक रूप छोड़ देने, न समझने से है। मानव की अवनति का कारण धर्म की अवज्ञा करना है तथा कथनी और करनी में अन्तर का होना भी है। धर्म के नाम पर सम्प्रदायवाद की नींव तैयार करने वालों के कारण ही अराजकता बढ़ती चली जा रही है। आचार्यश्री ने कविता के माध्यम से धर्म की विकृत दशा का खेदमय वर्णन प्रस्तुत किया है : "कहाँ तक कहें अब!/धर्म का झण्डा भी/डण्डा बन जाता है शास्त्र, शस्त्र बन जाता है/अवसर पाकर ।/और/प्रभु-स्तुति में तत्पर सुरीली बाँसुरी भी/बाँस बन पीट सकती है/प्रभु-पथ पर चलने वालों को। समय की बलिहारी है !" (पृ. ७३) धर्म, मानव जीवन के उन्नयन का आधार है । लेकिन भौतिकता की चकाचौंध में धर्म को 'अफीम'कहने वालों तथा धर्म की आड़ में चोट करने वालों की वजह से ही जीवन के विभिन्न स्तरों में गिरावट आई है। आज धर्म मात्र प्रदर्शन की वस्तु रह गया/जाता है और सांस्कृतिक मूल्य खोते चले जा रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में समाज का स्वरूप क्या होगा ? आचार्यश्री ने उसी रूप को हमारे सम्मुख रखा है : "हाय रे !/समग्र संसार-सृष्टि में/अब शिष्टता कहाँ है वह ? अवशिष्टता दुष्टता की रही मात्र !" (पृ. २१२) इस दुष्टता का कारण मानव की मोही और लोभी प्रवृत्तियाँ ही हैं, जो उसे सत्कार्य करने से दूर हटाती हैं। फलस्वरूप इसी धन-संग्रह की घृणित लालसा ने मानव को मानव से दूर कर दिया है और सभी रिश्ते-नाते, संवेदनाएँ भी खोखली-सी हो चुकी हैं। आचार्यश्री ने धन-लोलुपता नष्ट कर आत्मीय और जन-कल्याण के लिए सतत प्रयत्नशील रहने का मार्ग बतलाया है। साथ ही जन-संग्रह के लिए धन नीति का विरोध किया है : "अब धन-संग्रह नहीं,/जन-संग्रह करो!/और/लोभ के वशीभूत हो अंधाधुन्ध संकलित का/समुचित वितरण करो।" (पृ. ४६७) यह वितरण का सिद्धान्त ही मानव को पूर्ण स्वायत्तता और विकास दे सकता है । आचार्य विद्यासागरजी ने राजनीतिगत सन्दर्भो में राजसत्ता को काँटों की शैया कहा है । वह मात्र फूलों की सेज नहीं है । शासक तभी उन घोषित नारों को यथार्थ रूप दे सकते हैं, जब वे स्वयं उनका उसी रूप में ही उपयोग करें। प्रचार-प्रसार के चक्करों से दूर प्रशस्त आचार-विचारों वाला जीवन ही समाजवाद की परिधि में आता है । लेकिन आज ऐसा कहाँ दृष्टिगोचर होता/हो पा रहा है ? भोग-विलास और सत्ता मद में डूबे शासक समाजवाद के नाम पर क्या कर रहे हैं - उसी तथ्य की स्पष्ट विवेचना विद्यासागरजी ने की है : "स्वागत मेरा हो/मनमोहक विलासितायें/मुझे मिलें अच्छी वस्तुएँऐसी तामसता भरी धारणा है तुम्हारी,/फिर भला बता दो हमें,
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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