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________________ 'मूकमाटी' : एक जीवनदर्शी काव्य डॉ. र. वा. बिवलकर आचार्य विद्यासागर द्वारा विरचित 'मूकमाटी' एक प्रबन्ध काव्य है । एक धर्मचेता साधक, जब सर्जनशील साहित्यिक के रूप में साहित्य कृति की सर्जना करता है तो यह स्वाभाविक ही हो जाता है कि रचना उसके धर्म-दर्शन एवं अध्यात्म चिन्तन के प्रभाव को भी सहज अभिव्यक्ति दे जाय। 'मूकमाटी' प्रबन्ध काव्य में यही तथ्य उजागर होता है। 'मूकमाटी' काव्य एक जीवनदर्शी काव्य है । जीवन वह नहीं, जो हम जी रहे हैं वरन् वह, जो हमें जीना चाहिए। मानव जीवन की यात्रा इस काव्य में कवि ने अन्यान्य प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत की है। मनुष्य की जीवन यात्रा का आरम्भ मृण्मय शरीर धारण से है। उसमें विद्यमान चेतन जीवन्तता का संस्कार है और जीवन की कृतार्थता का अनुभव करने पर जीवन का अन्त - मिट्टी में मिलने में ही है। कवि ने जीवन यात्रा की इन अवस्थाओं का संकेत इस काव्य में किया है। काव्य के अन्त में धरती के द्वारा कुम्भ के लिए सम्बोधन कराया गया है : "माँ सत्ता को प्रसन्नता है, बेटा/तुम्हारी उन्नति देख कर मान-हारिणी प्रणति देखकर ।/'पूत का लक्षण पालने में" कहा था न बेटा, हमने/उस समय, जिस समय तुमने मेरी आज्ञा का पालन किया/जो/कुम्भकार का संसर्ग किया सो/सृजनशील जीवन का/आदिम सर्ग हुआ। जिसका संसर्ग किया जाता है/उसके प्रति समर्पण भाव हो, उसके चरणों में तुमने/जो/अहं का उत्सर्ग किया/सो सृजनशील जीवन का/द्वितीय सर्ग हुआ। समर्पण के बाद समर्पित की/बड़ी-बड़ी परीक्षायें होती हैं और "सुनो !/खरी-खरी समीक्षायें होती हैं,/तुमने अग्नि-परीक्षा दी उत्साह साहस के साथ/जो/सहन उपसर्ग किया,/सो सृजनशील जीवन का/तृतीय सर्ग हुआ। परीक्षा के बाद/परिणाम निकलता ही है/पराश्रित-अनुस्वार, यानी बिन्दु-मात्र वर्ण-जीवन को/तुमने ऊर्ध्वगामी ऊर्ध्वमुखी/जो स्वाश्रित विसर्ग किया/सो/सृजनशील जीवन का/अन्तिम सर्ग हुआ। निसर्ग से ही/सृज्-धातु की भाँति/भिन्न-भिन्न उपसर्ग पा तुमने स्वयं को/जो/निसर्ग किया,/सो/सृजनशील जीवन का वर्गातीत अपवर्ग हुआ।" (पृ. ४८२-४८३) समग्र काव्य में एक विशेष जीवन दृष्टि हमारे सामने प्रस्तुत है । जीवन की घटना में, संस्कार में संगति तथा संगति दोषों का अपना महत्त्व होता है । वे गीली मिट्टी के समान संस्कार-क्षम मानव चेतना को मोड़ देते हैं, परिवर्तित कर देते हैं तो बिगाड़ भी देते हैं। पानी की एक बूंद सागर जल में मिलकर खारी बनती है तो विषधर के मुँह में विषहलाहल बनती है तथा सागरीय शुक्तिका में अगर स्वाति नक्षत्र का काल है तो मोती बनती है । एक ही जलीय सत्ता के
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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