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________________ 270 :: मूकमाटी-मीमांसा अनुगूंज के स्वर गुंजायमान होने लगे। 'मूकमाटी' ने साहित्य - जगत् को आन्दोलित कर दिया। एक ऐसी हलचल पैदा कर दी कि विद्वान्, कवि, आलोचक और साहित्य प्रेमी इस 'मूकमाटी' के स्पन्दन को सुनने और समझने के लिए लालायित हो उठे । आज यह कृति साहित्य जगत् में उस स्थान की अधिकारिणी माने जाने लगी जहाँ कवि प्रसाद की 'कामायनी', दिनकर की 'उर्वशी' और पन्त का 'लोकायतन' हुआ था । इसलिए कि महाकाव्य की सम्पूर्ण विशेषताओं के साथ-साथ इस कृति में आधुनिक युग की उन मूलभूत समस्याओं का उचित समाधान किया गया है, जो कृति के कालजयी होने के लिए आवश्यक है। जहाँ तक साहित्य जगत् में किसी रचनाकार की पहचान का प्रश्न है तो हम यही कह सकते हैं कि किसी कवि या साहित्यकार की वे कुछ एक रचनाएँ ही हुआ करती हैं जो उसकी पहचान को कायम करती हैं। इस दृष्टि से यदि हम अतीत की ओर झाँकें तो ज्ञात होगा कि जायसी की पहचान के लिए 'पदमावत', तुलसी की पहचान के लिए 'रामचरित - मानस, केशव की पहचान के लिए 'रामचन्द्रिका, प्रेमचन्द की पहचान के लिए 'गोदान', रेणु की पहचान के लिए 'मैला आँचल', प्रसाद की पहचान के लिए 'कामायनी, निराला की पहचान के लिए 'राम की शक्ति-पूजा', दिनकर की पहचान के लिए 'उर्वशी, पन्त की पहचान के लिए 'लोकायतन' है और इसी प्रकार आचार्य श्री विद्यासागर की साहित्य जगत् में पहचान 'मूकमाटी' के द्वारा कायम हुई । 'मूकमाटी' आधुनिक काल का ऐसा महाकाव्य है जिसने जनमानस को आन्दोलित किया है। ‘मूकमाटी' आने वाले समय में भारतीय संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए एक थाती कार्य करेगी। यह कृति कवि, मनीषी, सन्त और अध्यात्म के क्षेत्र में शिखर ऊँचाइयों को प्राप्त कर चुके उस महान् afa का अनुभूतिगम्य निचोड़ है जो कि साधना के उच्चतम सोपानों को प्राप्त करने के पश्चात् प्राप्त होता है । 'मूकमाटी' के अनुपम उपहार को साहित्य जगत् जिस कृतज्ञ भाव से ले रहा है, वह नि:सन्देह अत्यन्त शुभ संकेत है । वास्तव में देखा जाय तो 'मूकमाटी' केवल एक काव्य कृति ही नहीं, वरन् एक ऐसा महाकाव्य है जिसमें भक्ति, ज्ञान और कविता की त्रिवेणी का संगम सबको पावन बना देता है। आचार्यश्री ने 'मानस - तरंग' (पृ. XXIV) में स्वयं इस महाकाव्य के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए लिखा है : "जिसने वर्ण-जाति-कुल आदि व्यवस्था-विधान को नकारा नहीं है परन्तु जन्म के बाद आचरण के अनुरूप, उसमें उच्च-नीचता रूप परिवर्तन को स्वीकारा है । इसीलिए 'संकर-दोष' से बचने के साथ-साथ वर्ण-लाभ को मानव जीवन का औदार्य व साफल्य माना है। जिसने शुद्ध सात्त्विक भावों से सम्बन्धित जीवन को धर्म कहा है; जिसका प्रयोजन सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट हुई कुरीतियों को निर्मूल करना और युग को शुभ-संस्कारों से संस्कारित कर भोग से योग की ओर मोड़ देकर वीतराम श्रमण-संस्कृति को जीवित रखना है । " आचार्यश्री का यह महाकाव्य जैन दर्शन के धरातल पर समकालीन परिप्रेक्ष्य में काव्यशास्त्र की एक नवीन भाव - भूमि को प्रस्तुत करता है । 'माटी' को आधार बनाकर 'मुक्त छन्द' में भाव, भाषा और शैली की दृष्टि आचार्यश्री का यह अनुपम और स्तुत्य प्रयास है जिसमें कवि की दृष्टि पतित से पावन बनाने की ओर दिखाई देती है । आचार्यश्री का यह महाकाव्य मानव सभ्यता के संघर्ष और सांस्कृतिक विकास का दर्पण है । यह कृति मानवता को असत्य से सत्य की ओर, हिंसा से अहिंसा की ओर, अशान्ति से शान्ति की ओर तथा बाह्य से अन्तर् की ओर ले जाने वाली ऐसी अन्यतम रचना है, जो एक साथ अनेक प्रसंगों को लेकर चली है। जिस तरह से वट-बीज से वट का विशाल वृक्ष बनता है, ठीक उसी तरह से नर भी नारायण बनता है और यह सच्ची साधना, उपासना से ही सम्भव है। इसी लक्ष्य लेकर महाकवि ने इस महत् कार्य को काव्य के रूप में संस्कारित किया है, जिसका औदात्य भाव हम 'मूकमाटी' की निम्न पंक्तियों में देख सकते हैं :
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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