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________________ 264 :: मूकमाटी-मीमांसा अवेक्षणीय हैं । किन्तु एक समीक्षक के रूप में या स्यात् श्रद्धालु पाठक के रूप में कहने के लिए बाध्य हूँ कि पूज्यपाद विद्यासागरजी ने इन विचारों से काव्यात्मा को बोझिल नहीं होने दिया है, यहाँ तक कि 'दुरूहता' तो उसके पास फटकने तक नहीं पाई है। इसका कारण स्यात् स्वामीजी की साहित्य - साधना का परिणाम है, क्योंकि हमारे यहाँ साहित्य-साधक वही होता है जो ब्रह्म-साधक है और इसकी विपरीत स्थिति भी सही मानी गई है। आचार्यवर श्री विद्यासागरजी में तो ब्रह्म, योग और साहित्य की त्रिवेणी प्रवाहित हो रही है जिसमें मन लालायित हो उठता है, मैल धोने को। तभी तो 'मूकमाटी' को : "आँखें भी पढ़ सकती हैं / कान भी सुन सकते हैं इस की सेवा हाथ भी कर सकते हैं / यह साहित्य जीवन्त है ना !” (पृ.१११ ) इसकी जीवन्तता बनी रहे, इसके लिए 'ब्रह्मानन्द सहोदर' के रूप में पृष्ठ सं. १३१ से १६० तक सभी रसों का सुन्दर परिपाक किया गया है। भाव अमूर्त होते हुए भी मूर्त प्रतीत होते हैं। शब्द- ध्वनियों की मौलिक व्याख्या पाठकों ज्ञानवर्द्धन में सहायक तो है ही, चारुता की पराकाष्ठा को भी प्राप्त है, यथा : "किस शब्द का क्या अर्थ है, / यह कोई अर्थ नहीं रखता अब ! कला शब्द स्वयं कह रहा कि / 'क' यानी आत्मा - सुख है 'ला' यानी लाना - देता है/ कोई भी कला हो / कला मात्र से जीवन में सुख-शान्ति सम्पन्नता आती है।/न अर्थ में सुख है / न अर्थ से सुख !" (पृ.३९६) इसी प्रकार श, स, ष - इन तीनों बीजाक्षरों की व्याख्या इस प्रकार है : 66 'श' यानी / कषाय का शमन करने वाला / ... शाश्वत शान्ति की शाला"" ! 'स' यानी / समग्र का साथी / ... और / 'ष' की लीला तो निराली है । पके पेट को फाड़ने पर / 'ष' का दर्शन होता है 'प' यानी / पाप और पुण्य । ” (पृ. ३९८ ) इस प्रकार की अनेकानेक शाब्दिक अभिव्यंजनाओं से महाकाव्य भरा पड़ा है। भारतीय संस्कृति कभी भी निरापद नहीं रही है। समय-समय पर आततायी इसे विकृत एवं विशृंखलित करने का दुष्प्रयास करते रहे हैं। सभी ने अपने-अपने ढंग से इसे नोंचा है, खसौटा है, किन्तु कुछ बात है कि 'हस्ती मिटती नहीं हमारी ' । वर्तमान समय में जो आपदा है वह है 'आतंकवाद' की । यद्यपि यह समस्या विश्वस्तरीय है, तथापि भारतीय परिवेश में रहने वालों के लिए अजूबा ही लगती है। 'मूकमाटी' में इस ज्वलन्त समस्या को भी उठाया गया है । यद्यपि यह निश्चित है कि मान को टीस पहुँचने से ही आतंकवाद का अवतार होता है, कभी-कभी अतिपोषण अथवा अति-शोषण से भी आतंकवाद फलित होता है किन्तु यह महा-अज्ञानता है। दूरदर्शिता का अभाव दूसरों के लिए ही नहीं, अपने लिए भी घातक होता है। जब तक इस धरती पर आतंकवाद जीवित रहेगा, धरती शान्ति का श्वास नहीं ले सकती। इसलिए आवश्यक है कि दया, करुणा और उदारता की साकार प्रतिमूर्ति हमारी यह संस्कृति जो आज 'हिंसा के साथ हिंसा करने को भी अहिंसा मानती है' वह कृतसंकल्पित हो : “ ये आँखें अब / आतंकवाद को देख नहीं सकतीं, / ये कान अब
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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