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________________ 256 :: मूकमाटी-मीमांसा तुम्हें परमार्थ मिलेगा इस कार्य से ।” (पृ. २७७) अन्ततः कुम्भ पक, तप उठता है और इसका उपयोग है आहार दान के लिए पधारे गुरु का पाद प्रक्षालन एवं तृषा की तृप्ति । श्रद्धालु नगर सेठ का सेवक कुम्भ ले जाने के पहले सात बार बजाकर उसका परीक्षण करता है और इसमें से निकले सात स्वरों को आचार्यप्रवर ने मनुष्य की चेतना का पथ प्रदर्शक बना दिया है : " सारे गम यानी / सभी प्रकार के दुःख प ंध यानी ! पद-स्वभाव / और / नि यानी नहीं, दु:ख आत्मा का स्वभाव - धर्म नहीं हो सकता । " (पृ. ३०५ ) साधु के आहार दान की प्रक्रिया जीव की मुक्ति का मार्ग है और इस मार्ग का माध्यम है सन्तोष : ‘मूकमाटी' के ‘प्रस्तवन' लेखक श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन के अनुसार : “प्रसंगों का, बात में से बात की उद्भावना का, तत्त्व-चिन्तन के ऊँचे छोरों को देखने-सुनने का, और लौकिक तथा पारलौकिक जिज्ञासाओं एवं अन्वेषणों का एक विचित्र छवि-घर है यह चतुर्थ खण्ड ।" यह चतुर्थ खण्ड पूजा और उपासना द्वारा जीव मुक्ति का एक माध्यम है। आचार्यप्रवर इसी राह के राही हैं और वे इनके उपकरणों में जीवन्तता का दर्शन पाते हैं। वह जीवन्त वार्तालाप के माध्यम से मानवीय भावनाओं, गुण और अवगुण को अभिव्यक्त करते हैं। निश्चित ही यहाँ प्रसंगों की नाटकीयता, पूर्वापर सम्बन्धों का बिखराव और अतिशयता है, जो रचना को अनावश्यक विस्तार देने की भावना से ग्रस्त प्रतीत होती है। साथ ही समीक्षकों के मानदण्डों पर यह खरा भी नहीं उतरता । किन्तु, जब काव्य की प्रासंगिकता का विचार किया जाता है तो यह स्पष्ट हो उठता है कि ऐसे प्रसंगों की परिकल्पना रचनाकार की साहसिकता का पर्याय तो बनती ही है, साथ ही रचना को सार्थक और आधुनिक परिदृश्य के अनुकूल बनाने का प्रयास भी करती है। अन्तर्द्वन्द्व और संघर्ष ऐसे सूक्ष्म मनोभाव हैं जिनकी सूक्ष्म से सूक्ष्मतम अभिव्यक्ति आधुनिक रचना की सबसे बड़ी माँग होती है। संघर्ष और अन्तर्द्वन्द्व आगे चलकर आतंकवाद के रूप में परिणत हो जाता है। तब, जब इस राह के राही को कहीं-न-कहीं अपनी उपेक्षा और असफलता के फलस्वरूप अपमान का बोध होता है। यह अपमान और उपेक्षा कालान्तर में भयानक बदले की भावना में परिवर्तित होती है। दो राय नहीं कि रचनाकार आचार्य विद्यासागर संसार में आज व्याप्त इस भावना से परिचित हैं, और वे समकालीन मानवता पर इसे एक अभिशाप मानते हैं। : O " सन्त समागम की यही तो सार्थकता है .. किन्तु वह / सन्तोषी अवश्य बनता है।” (पृ. ३५२) ... O " परतन्त्र जीवन की आधार - शिला हो तुम, / पूँजीवाद के अभेद्य दुर्गम किला हो तुम / और / अशान्ति के अन्तहीन सिलसिला !" (पृ. ३६६ ) " जब तक जीवित है आतंकवाद शान्ति का श्वास ले नहीं सकती / धरती यह ।" (पृ. ४४१) स्वर्णकलश की उद्विग्नता और उत्ताप इसी का परिचायक है जो अपना बदला लेने के लिए आतंकवादी दल को आमन्त्रित करता है । इसके कारनामों तथा विपत्तियों का लेखा-जोखा तो इस खण्ड में है ही, और यह भी है कि सेठ अपने
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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