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________________ 212 :: मूकमाटी-मीमांसा प्रशस्त आचार-विचार वालों का/जीवन ही समाजवाद है। समाजवाद-समाजवाद चिल्लाने मात्र से/समाजवादी नहीं बनोगे !" (पृ. ४६१) भौतिकवादी दृष्टि पर मदान्धता का आरोप आज के भौतिकतावादी युग में माया के प्रति मोह इतना बढ़ गया है कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के रुधिर का प्यासा बन गया है। 'हाय माया-हाय माया' की पुकार सर्वत्र सुनाई दे रही है । हर क्षेत्र में, हर कार्य में अर्थ की लालसा बलवती होती जा रही है। चारों पुरुषार्थों-धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष में से एक ही अर्थ का पुरुषार्थ रह गया है । पैसे की प्यास इतनी बढ़ती जा रही है कि मनुष्य साम, दण्ड और भेद के द्वारा दाम कमाना चाहता है । लोकलाज को तिलांजलि दे दी है, परमार्थ का मार्ग त्याग दिया है । धनोपार्जन एवं धन संवर्धन में लोकाचार, सदाचार, नैतिकता, सदाशयताइन सब को कोसों पीछे छोड़े जाने का उपक्रम किया जा रहा है। कवि का हृदय उन सब बातों से क्षुब्ध है, तभी तो वह कहता है : 0 "यह कटु-सत्य है कि/अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकतीं, अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को/निर्लज्ज बनाया है।" (पृ. १९२) । “क्या सदय-हृदय भी आज/प्रलय का प्यासा बन गया ? क्या तन-संरक्षण हेतु/धर्म ही बेचा जा रहा है ? क्या धन-संवर्धन हेतु/शर्म ही बेची जा रही है ?" (पृ. २०१) कलाओं के विषय में कवि श्री विद्यासागरजी का कथन कितना सत्य है कि कला सुख और शान्ति को लाने वाली है, सुन्दरता की अनुभूति कराने वाली है, आनन्द प्रदान करने वाली है। किन्तु खेद है कि ऐसी कला में भी आज अर्थ का दर्शन किया जा रहा है, उसे भी आजीविका का साधन बनाया जा रहा है, उसे स्वार्थिनी बनाया जा रहा है, उसका विक्रय किया जा रहा है । कवि का कथन यहाँ द्रष्टव्य है : "सकल-कलाओं का प्रयोजन बना है/केवल/अर्थ का आकलन-संकलन । आजीविका से, छी'छी"/जीभिका-सी गन्ध आ रही है, नासा अभ्यस्त हो चुकी है/और/इस विषय में, खेद हैआँखें कुछ कहती नहीं।/किस शब्द का क्या अर्थ है, यह कोई अर्थ नहीं रखता अब!/कला शब्द स्वयं कह रहा कि 'क' यानी आत्मा-सुख है/'ला' यानी लाना-देता है कोई भी कला हो/कला मात्र से जीवन में सुख-शान्ति-सम्पन्नता आती है।" (पृ. ३९६) इसको पढ़ कर कविवर मैथिलीशरण गुप्त की वे पंक्तियाँ बरबस स्मरण हो आती हैं जिनमें उन्होंने कला को अर्थ का पर्याय मानने वालों की आलोचना की है : "मानते हैं जो कला के अर्थ ही/स्वार्थिनी करते कला को व्यर्थ हो।" स्वर्ण (धन) को सवर्ण मानकर कवि ने उसे दिवान्ध बताया है, बन्धन से साक्षात्कार कराने वाला बताया है और जीवन
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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