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________________ 208 :: मूकमाटी-मीमांसा से होता आया है । हिन्दी के भक्तिकालीन कवि कबीरदास ने कुछ दोहे लिखे हैं जिनमें से एक दोहे में माटी और कुम्भकार के पारस्परिक वार्तालाप द्वारा संसार की असारता का वर्णन किया है : "माटी कहै कुंभार सों, तू क्यों रूँदै मोहि । इक दिन ऐसा आयगा, मैं रूँदूंगी तोहि ॥' 22 इस में कबीरदास ने कुम्भकार को संसारी जन की संज्ञा दी है और माटी के द्वारा उसे चेतावनी भी दी गई है कि आज तू मुझे रूँद रहा है, अपने निर्मम हाथों से लोंदा (पिण्ड) बना रहा है। परन्तु एक दिन हे कुम्भकार ! तेरा भौतिक शरीर मुझ में ही समा जाएगा। तेरा कंचन जैसा शरीर मिट्टी में ही मिल जाएगा। दूसरे दोहे में कबीरदास ने रहस्यवादी कवि की तरह कुम्भ को आत्मा और जल को परमात्मा मानकर जो अभिव्यक्ति की है, वह इस प्रकार है : "जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहिर भीतर पानी । फूटा कुम्भ जल जलहि समाना, यहु तत कथो गियानी ॥ " जल ( पर ब्रह्म) की सर्वव्यापकता और कुम्भ (आत्मा) की उसमें विलीनता दिखाकर कवि ने दार्शनिकता का संकेत दिया है। दूसरे भक्तिकालीन कवि सूरदास ने अपने 'सूरसागर' के एक पद में कुम्भ एवं कुम्भकार (कुलाल) के माध्यम से आत्मा-परमात्मा की रूपक योजना को अभिव्यक्त किया है। : “ऊधौ भली करी तुम आये विधि - कुलाल कीन्हे कांचे घट, तुम आपक रंग दियौ हो कान्ह साँवरे, अंग-अंग चित्र बनाये गलन न पाये नयननीर तें, अवधि - अटा जो छाये ब्रज अर अवाँ जोग करि ईंधन, सुरति अगनि सुलगाये फूंक उसांस प्रेम परजारनि, दरसन आस फिराये भरे संपूरन सकल प्रेमजल, छुअन न काहू पाये राजकाज तें गए सूर प्रभु, नंदनंदन कर लाये...।” विरह-वेदना से व्याकुल गोपियों को श्रीकृष्ण के सन्देशवाहक उद्धवजी का ब्रज में आगमन इस दृष्टि से तो शुभ ही लगा कि कच्चे घड़ों के रूपवाली गोपियाँ विरहाग्नि में पक कर पक्के घड़ों के रूप में परिवर्तित हो गईं। उद्धवजी के आते ही सारा ब्रज अवाँ बन गया, योगसाधना का सन्देश ईंधन बन गया, स्मृतियों ने उद्दीप्त होकर अग्नि का काम किया, श्वासों फूँकन का कार्य किया। इस प्रकार जो अग्नि प्रज्वलित हुई उससे श्रीकृष्ण के पुनः दर्शन की आशा ही मिट गई। कोरे घड़े या पक्व कलश बन कर, गोपियाँ श्रीकृष्ण के राज्याभिषेक के समय नीरभरे मंगल कलश बनकर उत्सव की शोभा बढ़ावें, बस यही एक मात्र भावना गोपियों में रह गई है। यह न कोई सन्देश है और न ही कोई उपदेश, यह तो गोपियों के हृदय का आर्तनाद है, आत्म निवेदन है। इस पद में घट की अग्नि परीक्षा एवं उसकी राज्याभिषेक में मंगल कलश के रूप में बैठने की अन्तिम अभिलाषा की मार्मिक अभिव्यक्ति कवि सूरदास ने की है। साहित्य में ऐसे प्रयोग, पद तथा दोहे विरल हैं । इनको लघु प्रयास की संज्ञा दी जा सकती है। आचार्य श्री विद्यासागरजी ने माटी को अपने महाकाव्य की कथावस्तु बनाकर यह सिद्ध कर दिया है कि माटी में बहुत बड़ी शक्ति
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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