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________________ 166 :: मूकमाटी-मीमांसा इस मन को मोक्ष साधन के अनुरूप बनाने के लिए इसमें सद्गुणों का आधान आवश्यक है । सम्पूर्ण गाँठ प्रसंग में आचार्य ने अहिंसा को सर्वश्रेष्ठ सद्गुण माना है। उनकी दृष्टि में सही आदमी वही है जो वास्तव में 'आदमी' है । उनके मत में : “जहाँ गाँठ - ग्रन्थि है / वहाँ निश्चित ही / हिंसा छलती है। ... ग्रन्थि - हिंसा की सम्पादिका है / और / निर्ग्रन्थअहिंसा पलती है । " (पृ. ६४) - दशा में ही इस अहिंसा को सिद्ध करने के लिए प्रतिशोध भावना का दमन आवश्यक है । बदले की भावना वह अनल है जिसमें तन और मन भव-भव तक जलते रहते हैं । प्रतिशोध की ज्वाला में जलने के कारण ही रावण का बल कम हुआ था और वह रो पड़ा था, जिससे 'रावण' कहलाया । प्रतिशोध के भाव को कम करने के लिए मृदु स्वभाव को धारण करना आवश्यक है । धरती अपने साथ दुर्व्यवहार होने पर भी प्रतिकार नहीं करती। इसीलिए वह सर्वसहा कहलाती है | आचार्य के मत 10 " सर्व सहा होना ही / सर्वस्व को पाना है जीवन में सन्तों का पथ यही गाता है ।" (पृ. १९० ) मन की स्थिरता, सद्गुणों के आधान तथा मोहभंग के लिए साधक को अध्यात्म पथ का पथिक बनना अनिवार्य है । मात्र दर्शन के पारायण से कोई भी आत्मलाभ नहीं कर सकता । दर्शन और अध्यात्म में भेद बताते हुए आचार्य ने कहा है कि दर्शन बुद्धिपरक होता है, वह तर्कणा प्रधान है। जबकि अध्यात्म स्वस्थ ज्ञान है : " दर्शन का स्रोत मस्तक है, / स्वस्तिक से अंकित हृदय से अध्यात्म का झरना झरता है । / ... अध्यात्म स्वाधीन नयन है दर्शन पराधीन उपनयन / ... स्वस्थ ज्ञान ही अध्यात्म है ।" (पृ. २८८) इस अध्यात्म की निरन्तर साधना करनी चाहिए। यह सम्भव है ' साधक को महावीर की भाँति अपने पथ से डिगना नहीं चाहिए। तपस्या निर्दोष हो जाता है । दोषों को जैन मत में अजीव तथा जीव से कथंचित् बाह्य माना गया है जबकि अनन्त ज्ञान, अनन्त का स्वभाव माना है । तभी तो कवि यह कामना करता है : आदि गुणों को इस साधना में व्यवधान आएँ फिर भी अग्नि में तपकर ही साधक घट की भाँति " मेरे दोषों को जलाना ही / मुझे जिलाना है / स्व-पर दोषों को जलाना परम- धर्म माना है सन्तों ने । / दोष अजीव हैं, / नैमित्तिक हैं, बाहर से आगत हैं कथंचित् ; / गुण जीवगत हैं,/ गुण का स्वागत है।" (पृ. २७७) इस साधना की चरम परिणति मोक्ष है जिसमें तन, मन और वचन के बन्धन आमूल मिट जाते हैं । यह वह शुद्ध दशा है जिसमें अविनश्वर सुख मानव को प्राप्त होता है । वह संसरण चक्र से सदा के लिए मुक्त हो जाता है । दर्शन और काव्य के अतिरिक्त बहुत कुछ प्रासंगिक और आनुषंगिक इस महाकाव्य में है । सुन्दर लोकोक्तियाँ एवं मुहावरे, अंकों और बीजाक्षरों के चमत्कार, आधुनिक विज्ञान की नवीन खोजें, जो 'स्टार वार' तक का संकेत देती हैं, इस काव्य में निहित हैं । अन्त में इतना कहना ही पर्याप्त है कि आद्योपान्त इस काव्य का पारायण कर पाठक बिना साधुवाद के रह नहीं पाता ।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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