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________________ 150 :: मूकमाटी-मीमांसा यहाँ ‘तो' ‘लो' एवं ‘तोलो' तथा 'न यापन' और 'नयापन' तथा 'नैयापन' जैसे सीधे सांकेतिक अर्थ वाले मुख्यार्थक शब्दों से कमाल की लक्ष्यार्थक और व्यंग्यार्थक अर्थ ध्वनियाँ स्फुटित हुई हैं। इसका अहसास आसानी से हो सकता है । ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं ‘मूकमाटी' में, जहाँ कविवर विद्यासागर ने अभिधा से ही अभिव्यंजना के कमाल दिखाए हैं। ऐसा करना असाधारण शिल्पी का ही काम है । एक बात और । वह यह कि अभिधामूलक काव्य व्यापार में शब्दों की भरमार की गुंजाइश रहती है। फिर वह महाकाव्य की रचना हो, तब तो और भी । किन्तु 'मूकमाटी' महाकाव्य का रचनाकार शब्दाडम्बर को अनर्थकारी मानता है। कम से कम शब्दों से अधिक अर्थवान् कर्म कराना ही तो कवि कर्म का कौशल है । शब्दों की फिजूलखर्ची भी एक प्रकार की हिंसा है, उन्हें बिलावजह उपस्थित कर उनको निष्प्राण बनाना है या थोड़े से काम के लिए अधिक लोगों को इकट्ठा करने की विवेकहीन क्रिया है, या झूठा मस्टर रोल भरने जैसा काम है, जहाँ काम करने वाले नहीं होते उनके नाम होते हैं, जिनके आगे हाज़िरी भरी जाती रहती है और हर हफ्ते उनकी मजदूरी जाली हस्ताक्षर करके मस्टर रोल वाले मुनीम द्वारा हड़प ली जाती है। विद्यासागरजी तो दार्शनिक शब्दावली से मण्डित भाषा को ही काव्यात्मक बनाकर किफ़ायत से प्रयुक्त करते हैं, जैसे : “हाँ ! हाँ !!/अधूरी दया- करुणा / मोह का अंश नहीं है अपितु / आंशिक मोह का ध्वंस है।” (पृ. ३९) कविता रचना के वक्त व्याकरण के नियम काम नहीं आते। मुक्त छन्द में तो और भी नहीं । काव्य रचना में कवि भाषा के क्षेत्र में निरंकुश होने तक की छूट ले लेता है। इसके अनेक कारण हैं। 'मूकमाटी' के कवि में व्याकरण की कोई खोट नज़र नहीं आई । इस महाकाव्य को पढ़कर आश्वस्ति होती है कि पद्य की भाषा को भी व्याकरण सम्म बनाया जा सकता है और भाषा में प्रयुक्त होने वाले विराम चिह्न भी कविता में अभिव्यक्ति को मुखर करने में सहायक हो सकते हैं । अनेक स्थलों पर तो आचार्य श्री विद्यासागरजी ने पर्यायवाची शब्दों की मूल धातु के आधार पर उनकी यथारूप विवेचना करते हुए विषय को विस्तार दिया, जैसे : 64 'स्' यानी सम-शील संयम / 'त्री' यानी तीन अर्थ हैं / धर्म, अर्थ, काम - पुरुषार्थों में पुरुष को कुशल - संयत बनाती है / सो 'स्त्री' कहलाती है । ओ, सुख चाहनेवालो ! सुनो, /'सुता' शब्द स्वयं सुना रहा है. : 'सु' यानी सुहावनी अच्छाइयाँ / और / 'ता' प्रत्यय वह भाव-धर्म, सार के अर्थ में होता है / यानी, / सुख-सुविधाओं का स्रोत सो'सुता' कहलाती है /यही कहती हैं श्रुत-सूक्तियाँ ! / दो हित जिसमें निहित हों वह 'दुहिता' कहलाती है / अपना हित स्वयं ही कर लेती है, पतित से पतित पति का जीवन भी / हित सहित होता है, जिससे वह दुहिता कहलाती है । / ... हमें समझना है / 'मातृ ' शब्द का महत्त्व भी । प्रमाण का अर्थ होता है ज्ञान / प्रमेय यानी ज्ञेय / और / प्रमातृ को ज्ञाता कहते हैं सन्त । जानने की शक्ति वह/मातृ-तत्त्व के सिवा / अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होती । यही कारण है, कि यहाँ / कोई पिता- पितामह, पुरुष नहीं है जो सब की आधार शिला हो, / सब की जननी / मात्र मातृतत्त्व है मातृ-तत्त्व की अनुपलब्धि में / ज्ञेय - ज्ञायक सम्बन्ध ठप् !
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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