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________________ 120 :: मूकमाटी-मीमांसा मछली बालटी के द्वारा पानी के साथ ऊपर आ जाती है। मानों उसे शरण मिल गई हो । सभी साथी-संगियों के आश्चर्य के बीच वह माया को छोड़ मुक्ति के पथ पर अग्रसर होती है । बाहर माटी के चरणों में गिरकर फूट-फूटकर रोती है । मानों माँ माटी के चरण पखार रही हो । पुन:, कवि मानव में लुप्त हो रही मानवता की ओर इंगित करता है : “ “वसुधैव कुटुम्बकम्"/इस व्यक्तित्व का दर्शनस्वाद-महसूस/इन आँखों को/सुलभ नहीं रहा अब! यदि वह सुलभ भी है/तो भारत में नहीं,/महा-भारत में देखो ! भारत में दर्शन स्वारथ का होता है ।/हाँ-हाँ ! इतना अवश्य परिवर्तन हुआ है/कि “वसुधैव कुटुम्बकम्"/इसका आधुनिकीकरण हुआ है वसु यानी धन-द्रव्य/धा यानी धारण करना/आज धन ही कुटुम्ब बन गया है/धन ही मुकुट बन गया है जीवन का।" (पृ. ८२) माटी-मछली के कथोपकथन द्वारा कवि कलियुग की स्वार्थमय पहिचान भी कराता है । सत्-युग और कलियुग में दृष्टि की महत्ता को स्पष्ट करता है । दृष्टि ही शिव-शव के भेद को स्पष्ट करती है : "एक का जीवन/मृतक-सा लगता है/कान्तिमुक्त शव है, एक का जीवन/अमृत-सा लगता है/कान्ति-युक्त शिव है।" (पृ. ८४) बेटी मछली को धरती माँ पुनः-पुन: जल में लौटने का आग्रह करती है, पर बेटी मछली जिसे अब वैराग्य हो गया है, वह तो सल्लेखना चाहती है । इसी परिप्रेक्ष्य में आचार्य कवि सल्लेखना का सही व वैज्ञानिक स्वरूप संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं : “सल्लेखना, यानी/काय और कषाय को/कृश करना होता है, बेटा ! काया को कृश करने से/कषाय का दम घुटता है,/"घुटना ही चाहिए। ...म्लान-मुखी और मुदित-मुखी/नहीं होना ही सही सल्लेखना है, अन्यथा/आतम का धन लुटता है, बेटा!" (पृ. ८७) मछली को पुन: जल में सुरक्षा से पहुँचा दिया जाता है। वही 'दयाविसुद्धो धम्मो' की गूंज पुनः उठती है। द्वितीय खण्ड 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं में यही कल्पना कथा कलेवर धारण कर आगे बढ़ती है। सभी ऋतुएँ माटी पर अपना प्रभाव डालती हैं। माटी और शिल्पी के संवाद जीवन को बहुत कुछ पाथेय प्रदान करते हैं। माटी तो शीत सह भी ले, शिल्पी कैसे सहे ! तभी तो माटी कहती है : "काया तो काया है/जड़ की छाया-माया है/लगती है जाया-सी... सो""/कम से कम एक कम्बल तो""/काया पर ले लो ना !" (पृ. ९२) आचार्य इस सम्बन्ध में अपरिग्रह के महत्त्व, उपयोगिता का सटीक वर्णन करते हैं। परिग्रह तो कमजोरी का प्रतीक है । ये 'नीति करम' से विपरीत होते हैं । आत्मा का मूल स्वभाव तो मोक्ष प्राप्ति है । कवि कामवृत्ति में मनोविकार की भावना का मनोवैज्ञानिक पहलू प्रस्तुत करता है। कवि माटी के खुदने, टूटने, फूटने और अब गलने की जीवन यात्रा की ओर आगे बढ़ता है। यह टूटन-फूटन या
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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