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________________ रोगों से विमुक्त रहने का क्रम सहज ही अपनाना है। : "योग के काल में भोग का होना / रोग का कारण है, / और भोग के काल में रोग का होना / शोक का कारण है । " (पृ. ४०७ ) जब मनुष्य सजग रहता है और प्रज्ञावान् रहता है तब उसकी वाणी भी सर्वसाधारण श्रुति का विषय हो रहती है : " सत्पुरुषों से मिलने वाला / वचन - व्यापार का प्रयोजन / परहित - सम्पादन है ... तालु -कण्ठ- रसना आदि के योग से / जब बाहर आती है वही मध्यमा, जो सर्व-साधारण श्रुति का विषय हो / वैखरी कहलाती है ।" (पृ. ४०२ ) पराशक्ति का चिन्मात्र रूप योगियों के लिए ज्ञेय है । तभी वह तेजोमय रूप में बाहर प्रकट होता है । D "परा प्रत्यक् चितिरूपा पश्यन्ती परदेवता । मध्यमा वैखरी रूपा भक्तमानसहंसिका || ” ( ललिता सहस्रनाम ) मूकमाटी-मीमांसा :: 109 D " पश्यन्तीव न केवलमूर्त्तीणा नापि वैखरीव बहिः स्फुटतरनिखिलावयवा वाग्रूपा मध्यमा || ” ( योग शास्त्र) यह सुदीर्घ साधना का फल है : " त्रिभुवन-जेता त्रिभुवन - पाल / ओंकार का उपासन भीतर-ही-भीतर चल ही रहा है ।" (पृ. ४०१ ) यही आनन्दमय है ('आनन्दमयोऽभ्यासात् ' - ब्रह्मसूत्र, १२) । ‘तैत्तरीयोपनिषद्' में ब्रह्मानन्द वल्ली की उक्ति के अनुसार आनन्दमय को अन्य किसी अन्तरात्मा की सूचना नहीं मिलती । "यतो वाचो निवर्त्तन्ते अप्राप्य मनसा सह । आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कुतश्चनेति ॥” (तैत्तरीय) जहाँ से मन के ही साथ वाणी भी उससे न मिलकर लौटती है उस ब्रह्मानन्द को जानने वाला किसी से भयभीत नहीं होता । यहाँ आनन्द ही ब्रह्म है । लोक तत्त्वों, आध्यात्मिक तत्त्वों और योग तत्त्वों से गुम्फित एवं सारगर्भित यह महाकाव्य हिन्दी के महाकाव्यों में अकेला सन्त काव्य है- प्रतिपादन में, वस्तु चयन में, उद्देश्य में । 'सरस- कोमल - कान्त पदावलि' की उक्ति इस रचना की अनुवर्तिनी है । एक तपोनिष्ठ योगी के भीतर शब्दों का इतना बड़ा भण्डार ! इस रचना को केन्द्र मानकर अनेक सार्थक विषयों पर शोध कार्य सम्भव है । संपूज्य महायोगी आचार्य विद्यासागर को मेरा विनम्र नमस्कार । पृष्ठ ३७० लो, दीपक की लाल लौ.... समग्रता से साक्षात्कार!
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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