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________________ 106 :: मूकमाटी-मीमांसा है, बहुत कुछ देखा है और बहुत कुछ गुना है। इसलिए छोटे-मोटे रचनाविधानों में औचित्यात्मक संघटना को महत्त्व नहीं देते। 'मूकमाटी' के प्रथम तीन खण्ड तो सन्तुलित हैं, किन्तु चौथा खण्ड तीनों खण्डों के जोड़ की पृष्ठ संख्या के लगभग समान ही पृष्ठ संख्यावाला है। चौथे खण्ड का कथानक भी विस्तृत है। काव्यशास्त्रीय दृष्टि से संघटनौचित्य का निर्वाह नहीं हो पाया है । आचार्यश्री का उद्देश्य लोक मंगल और लोक कल्याण की साधना है । वे चाहते हैं कि समाज को सब प्रकार से संस्कारित किया जाए। इसलिए उनके पास जो है, उसे वे जन-गण में बाँट देना चाहते हैं। 'लो धर्म, लो दर्शन, लो अध्यात्म, लो कर्मकाण्ड, लो आचरणशास्त्र, लो भारतीय संस्कृति, लो काव्य, लो कला, लो राजनीति, लो समाजनीति, लो दण्डनीति, लो चिकित्साशास्त्र, लो युद्धविद्या, लो विज्ञान, लो व्याकरण, लो लोकभाषा, लो लोकतन्त्र, लो समाजवाद, लो आचारशास्त्र, लो सब कुछ जो मैं जानता हूँ' की अभिव्यक्ति ने 'मूकमाटी' को काव्य की अपेक्षा ज्ञानकोष बना दिया है । पाठक या श्रोता पढ़-सुनकर बार बार उसकी परिभाषाओं को दुहराता है। मंगल घट की साज-सज्जा को परखना हो या अतिथि- साधु को भोजन - पान कराना हो तो विधि-विधान के लिए 'मूकमाटी' को सन्दर्भित करो । वस्तुत: यह ग्रन्थ ज्ञान का भण्डार है । आचार्यश्री समय समय पर पद - विहार करते रहते हैं, अतः अनुभूतियों का अक्षय कोष उनके पास है । वे वर्तमान की सात्त्विक चेतना के प्रत्यक्ष द्रष्टा हैं । 'मूकमाटी' के रचनाकाल की तात्कालिक घटनाओं का बिम्ब उसमें विद्यमान है । विज्ञान की विभीषिका के बिम्बों का अंकन 'मूकमाटी' में हुआ है। अणु-युद्ध और अन्तरिक्ष-युद्ध तथा नवीनतम आविष्कारों का वर्णन कवि की सजगता का प्रमाण है । आश्चर्य होता है कि सन्त होकर भी कवि सांसारिक कृत्यों की प्रत्यक्ष अनुभूति कैसे चित्रित कर पाया है ? प्रतिभा का वरदान ही 'मूकमाटी' जैसे शास्त्रीय महाकाव्य की सर्जना का उपादान कारण है । 'भाव, भाषा, शैली और प्रभाव की दृष्टि से 'मूकमाटी' महाकाव्य विश्व के श्रेष्ठ महाकाव्यों में अपना स्थान बना लेगा' - मेरा दृढ़ विश्वास है। अच्छा हो, इसका अनुवाद सभी भारतीय भाषाओं में हो जाय, जिससे भारतवासी यह समझ सकें कि सन्त कवि ज्ञान के, विज्ञान के, साहित्य के और संस्कृति के क्षेत्र में क्याक्या योगदान कर रहे हैं। आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज को मेरा नमन, जिन्होंने चिन्तन और दर्शन को कलात्मक सौन्दर्य से युक्त किया ‘मूकमाटी' महाकाव्य में । पृष्ठ ३३३-३३४ पराग- प्यासा भ्रमर-दल वह भ्राम्री-वृत्ति कही जाती सन्तों की !
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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