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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 81 कह उठता है: “यह सब/ऋषि-सन्तों की कृपा है,/उनकी ही सेवा में रत, एक जघन्य सेवक हूँ मात्र,/और कुछ नहीं।" (पृ. ४८४) कवि मोक्ष की परिभाषा देता हुआ कहता है : "बन्धन-रूप तन,/मन और वचन का/आमूल मिट जाना ही/मोक्ष है। इसी की शुद्ध-दशा में/अविनश्वर सुख होता है/जिसे/प्राप्त होने के बाद, यहाँ/संसार में आना कैसे सम्भव है/तुम ही बताओ!" (पृ. ४८६-४८७) कवि कुम्भकार ने माटी को तो बनाया ही है, साथ ही वही माटी हेममयी हो गई है। हेम आभा से उसका मुखमण्डल प्रदीप्त हो उठा है । मंगल घट में भरे जल से आज गुरु का पाद-प्रक्षालन हो सकेगा, श्रमण साधना का चरमोत्कर्ष उपस्थित हो सकेगा और परमानन्द, अक्षय सुख का विश्वास जागेगा । मनुष्य की भव्यता, मूल्यदृष्टि इसी में है कि वह भोले-भाले, भूले-भटके, विनीत भाव से भरे हुए, सहज-सरल तथा अकिंचन की सहायता करे । उसे हित-मित-मिष्ट वचनों से आप्लावित कर दे । साधना की सार्थकता वही है जिसे जीवन में उतारा जा सके तथा अपनाया जा सके और जीवन में आश्वस्त बना जा सके । राग में विराग है और विराग में राग । सन्त इन दोनों से ऊपर उठता है । न उसमें राग होता है और न ही विराग । वह तो ऋषि है, गुणातीत है, आर्ष परम्परा का प्रतीक है। उसका प्रसाद आराधक को बड़ी साधना के बाद मिलता है । मुदित मुख गुरु का प्रसाद ही अभय का हाथ है जो भावों से भरा हुआ है, शाश्वत सुख का दाता है । अभय का हाथ उठ जाने पर साधक का परम कल्याण होता है। आचार्य विद्यासागर द्वारा रचित यह 'मूकमाटी' काव्य हिन्दी साहित्य की ही नहीं अपितु भारतीय साहित्य की अनुपम उपलब्धि है । हमें आशा है कि काव्य के आध्यात्मिक चिन्तन और दर्शन की परिचर्चा जहाँ होगी है वहाँ इसका सन्दर्भ अवश्य दिया जाएगा। आध्यात्मिक अन्तश्चेतना को माटी में सान कर यशस्वी सन्त कवि ने मानव समाज तथा सुधी पाठकों के लिए मंगलमय घट का निर्माण किया है। अपने कवि जीवन के अनुभवों के रस से सिंचित कर कवि ने काव्य को भव्यता और सरलता प्रदान की है। कवि का यह सन्देश है कि मनुष्य अपनी आत्मा का उद्धार अपने पुरुषार्थ से ही कर सकता है और उसे अविनश्वर सुख प्राप्त हो सकता है। कवि की लेखिनी ने 'मूकमाटी' को अबाधित जलधारा का रूप दिया है। कविता धाराप्रवाह अबाधित सरिता के रूप में प्रवहमान् है । 'मूकमाटी' में कवि ने सरलता, आध्यात्मिकता, दर्शन एवं चिन्तन तथा प्रेरणादायक अनुभवगम्य स्रोतों से काव्य को कल्पवृक्ष के समान जीवन्त और प्राणवान् बना दिया है। यदि इसे मानव जीवन का कल्पवृक्ष कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह रचना कवि की परिपक्वता का द्योतक है तथा महाकाव्योचित औदात्य को धारण करने वाला एक अभिनय यश-काव्य है । तप:पूत सन्त कवि की काव्य प्रतिभा से सम्पन्न एवं प्रशस्त शैली का काव्य सम्पूर्ण मानव समाज का हित साधक है। इस काव्य की सफलता यह है कि रचनाकार ने अपनी साधना से, कर्मठता और आत्मविश्वास से तुच्छ माटी को भी हेममय कुम्भ बना दिया है । यह नन्हीं काया मूलत: मूकमाटी ही है । रचनाकार इसे सुन्दर पक्व घट का रूप देकर हमें प्रेरणा देता है कि जीवन घट को तपस्या की अग्नि में पकाएँ और भव्य मंगल घट का रूप दें। मनुष्य अपनी साधना से संरचनाकार साधना के माध्यम रूप गुरु को प्रसन्न करे और उसका अविनश्वर प्रसाद ग्रहण करे । कवि-कर्म, दर्शन और अध्यात्म की त्रिवेणी इस काव्य में प्रवाहित हो रही है। इस काव्य सरिता की त्रिवेणी ने इसे पवित्र संगम तीर्थराज का रूप दिया है,
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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