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________________ 78 :: मूकमाटी-मीमांसा कराया। माटी स्वयं कंकरों को अपनी स्थिति का आभास देती है। माटी की शालीनता स्वयम् सिद्ध है : ... "माटी की शालीनता / कुछ देशना देती-सी ! / " महासत्ता - माँ की गवेषणा समीचीना एषणा / और / संकीर्ण - सत्ता की विरेचना / अवश्य करनी है तुम्हें ! अर्थ यह हुआ - / लघुता का त्यजन ही / गुरुता का यजन ही शुभ का सृजन है ।/ अपार सागर का पार / पा जाती है नाव/हो उसमें छेद का अभाव भर !” (पृ. ५१) इस खण्ड में मछली का प्रसंग भी वर्णित है। मछली माटी से अलग होकर कुछ प्रश्न करती है, जिसको उसकी माँ 'माटी' समझाती है । माँ कहती है : " समझने का प्रयास करो, बेटा ! / सत् - युग हो या कलियुग / बाहरी नहीं भीतरी घटना है वह / सत् की खोज में लगी दृष्टि ही / सत्-युग है, बेटा ! / और असत् - विषयों में डूबी / आ-पाद- कण्ठ / सत् को असत् माननेवाली दृष्टि स्वयं कलियुग है, बेटा !” (पृ. ८३) माटी माँ अपनी पुत्री मछली को सारी परिस्थितियाँ समझाती है और विषयों की लहरों से बचकर रहने का उपदेश देती है। वह कहती है : "यही कहना है बेटा ! / कि / अपने जीवन काल में / छली मछलियों - से छली नहीं बनना / विषयों की लहरों में / भूल कर भी मत चली बनना/और सुनो, बेटा / मासूम मछली रहना, यही समाधि की जनी है।” (पृ. ८७-८८ ) इस खण्ड का समापन ‘दयाविसुद्धो धम्मो' की ध्वनि गूँजने के साथ होता है। इस पूरे खण्ड में रचनाकार ने माटी की रचना प्रक्रिया से सम्बन्धित सभी पक्षों का उद्घाटन किया है। शिल्पी कुम्भकार माटी के सारे दोषों का निवारण कर उसे शालीन रूप देता है। माटी की शालीनता में उसके शुद्धीकरण की प्रक्रिया आच्छन्न है । अन्तरकथा के रूप में कंकर की, और मछली के प्रसंग को जल के साथ वर्णित करना कवि की विशेष दृष्टि है । इस प्रक्रिया में कवि ने अपने दर्शन और चिन्तन को आधार बनाया है, जिससे वर्णन में गाम्भीर्य और भव्यता आई है । कवि की अन्तर्भेदी दृष्टि माटी को वर्णलाभ दिलाने में सार्थक प्रतीत होती है। सराहनीय यह बात है कि चिन्तनपरक दार्शनिक दृष्टि होते हुए भी काव्य की सहजता और सरलता पर कोई आँच नहीं आई है। माटी को वर्णलाभ तक कवि की दृष्टि अत्यन्त स्पष्ट और सुलझी हुई दिखाई देती है | भावाभिव्यंजना सरल और सम्प्रेषणीय है । पाठक माटी की इस यात्रा से एक दृष्टि मिलती है और यह चेतना ही मनुष्य की अपनी थाती है। I दूसरा खण्ड ' शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' शीर्षक से अभिहित है । इस खण्ड में स्पष्ट रूप से शब्द के बोध को स्पष्ट करते हुए कवि ने बोध से शोध तक की यात्रा तय की है। मूकमाटी की यात्रा का अगला चरण प्रारम्भ होता है । जल माटी के साथ मिल कर के नव प्राण पाता है। माटी ज्ञान का और पानी अज्ञान का प्रतीक है। माटी चिर और स्थिरप्रज्ञ है तथा जल अस्थिर, चंचल, अचिर । ज्ञानी माटी से मिलकर अज्ञानी जल ने प्राणवत्ता पाई है। अस्थिर तथा अचिर को स्थिरता और चिरता मिली है। यही उसका नया कायाकल्प है, नूतन परिवर्तन है । कवि अपनी दर्शन
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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