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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 71 इस प्रकार महाकाव्य की शास्त्रीय परम्परा की दृष्टि से 'मूकमाटी' महाकाव्य अनेक प्रश्न खड़े करता है, जिनमें से एक उसके नायकत्व का भी है । 'मूकमाटी' का नायकत्व महाकाव्य हो या खण्डकाव्य, नाटक हो या उपन्यास- सबमें नायक की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। 'मूकमाटी' नायक को लेकर असमंजस की स्थिति रही है। श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ग्रन्थ के आरम्भ में लिखित 'प्रस्तवन' में इस प्रश्न को उठाते हैं : “... प्रश्न होगा कि 'मूकमाटी' का नायक कौन है, नायिका कौन है ? बहुत ही रोचक प्रश्न है, क्योंकि इसका उत्तर केवल अनेकान्त दृष्टि से ही सम्भव है। माटी तो नायिका है ही, कुम्भकार को नायक मान सकते हैं " किन्तु यह दृष्टि लौकिक अर्थ में घटित नहीं होती। यहाँ रोमांस यदि है तो आध्यात्मिक प्रकार का है।" वस्तुतः नायक शब्द को पुल्लिंगवाची मानने के कारण मिट्टी को नायिका मान लिया जाता है, तो नायक की खोज आरम्भ होती है । कहीं कुम्भकार को नायक माना जाता है, तो कहीं माटी से निर्मित कलश के जल से जिन गुरुचरणारविन्दों का अभिषेक होना है, उन सद्गुरु को नायक घोषित कर दिया जाता है । हमें इस कृति के नायक की तलाश के लिए नायक की कसौटी पर ध्यान देना होगा । 'नाट्यशास्त्र' के प्रणेता आचार्य भरतमुनि ने अपने ग्रन्थ में लक्षणों की विस्तृत विवेचना की है। 'दशरूपक' कार धनंजय ने नायक का विनीत, शूरवीर, नेता, लोकप्रिय, स्थिर, युवा, उत्साही, कलाप्रिय, दृढ़प्रतिज्ञ तथा साहसी होना अनिवार्य माना है । भाषायी निष्पत्ति के आधार पर नायक शब्द संस्कृत भाषा की 'नी' धातु से निष्पन्न है, जिसका अर्थ जाना होता है । अर्थात् नाटक की कथा के विभिन्न सूत्रों की एक श्रृंखला में आबद्ध करके अन्तिम लक्ष्य तक ले जाने वाला नायक कहलाता है । उपर्युक्त बातों के प्रकाश में मुख्य नायक के लिए यह आवश्यक है कि वह : (१) कथा की केन्द्रीय धुरी हो अर्थात् मुख्य पात्र हो । (२) अथ (कथारम्भ ) से इति (कथा समापन ) तक उसकी उपस्थिति हो । (३) रस निष्पत्ति का मुख्य कारक हो । (४) समस्त प्रासंगिक कथाओं का सूत्र संचालक हो । धीरोदात्त आदि गुणों की चर्चा यहाँ हमारा अभिप्रेत नहीं है । इन तत्त्वों के प्रकाश में सहज स्पष्ट है कि वह माटी ही एक ऐसा चरित्र है, जो समूची काव्यकृति का केन्द्र बिन्दु है, और कृति का नामकरण भी उसके नाम पर ही हुआ है। कुम्भकार का प्रसंग हो या रस्सी, काँटे की बात हो या कंकड़ की - सारे प्रसंग माटी के कारण ही उपस्थित होते हैं । श्री फणीश्वर नाथ रेणु ने जब 'मैला आँचल' उपन्यास लिखकर उसकी भूमिका में लिखा है : "यह है, आँचलिक उपन्यास। इसमें धूल भी है, गुलाल भी, फूल भी हैं, शूल भी...।" तो समीक्षक उस आँचलिक उपन्यास में नायक तलाश करने लगे और अपना सिर धुनने लगे। डॉ. प्रशान्त को नायक माना जाने लगा तो नायक की कसौटी पर वह खरे नहीं उतरे । समीक्षकों के सम्मुख समस्या खड़ी हुई। बाद में निर्धारित किया गया कि इस रचना का नायक कोई व्यक्ति नहीं, समूचा परिवेश है । तब से अँचल को नायक मानने की बात सिद्ध हुई और आँचलिक उपन्यासों की नूतन धारा का श्रीगणेश हुआ । हमारे कहने का अभिप्राय मात्र इतना है, कि जब कृतिकार का पौरुष, उसका रचना सामर्थ्य इतना बढ़ाचढ़ा होता है कि हमारी परम्परागत सोच के ढाँचे छोटे पड़ जाते हैं, तब समीक्षा के नए निकष बनते हैं, कोई निराला, कोई रेणु या कोई विद्यासागर जैसा रचनाकार अपनी अपरिमित प्राण ऊर्जा से शास्त्रीयता के बने बनाए साँचों को तोड़ डालता है; किंवा उसे छोटा कर देता है तो उस बौनेपन से नया शास्त्र जन्म लेता है; जिसमें मूकमाटी को नायक का पद देना समीक्षा की विवशता होती है, अनिवार्यता होती है। इस प्रकार प्रस्तुत सन्दर्भ में 'माटी' ही इस सूचना का नायक
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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