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________________ ' इस पर्याय की / इति कब होगी ? / इस काया की च्युति कब होगी ? / बता दो, माँ... इसे !" (पृ. ५) मूकमाटी-मीमांसा :: 63 कवि जड़-चेतन सत्ताओं को नहीं वरन् सत्ताओं के सम्बन्धों को साक्षात्कृत करता है। विचार-भाव सम्पन्न कवि की यह संरचना, अपने रूपकत्व में अप्रत्याशित और अलक्षित गहरे और विचारोत्तेजक अर्थों को सम्प्रेषित करने में विलक्षण बन गई। 'धृति धारिणी धरती' अपनी माटी को जो सम्बोधन करती है, वह नए भूभाग को कविता में लाने की उत्तेजना है, कवि की बौद्धिक मनोभूमि का अन्वेषण है और जैन दर्शन की पार्श्वभूमि पर एक रचनात्मक साहस है। यहाँ बादलों की 'उजली-उजली जल की धारा' का अन्योन्याश्रित सम्बन्धों में, पूर्वश्रुत सत्य की अन्तर्ध्वनियाँ व्यक्त कर कवि अपनी सौन्दर्याभिरुचि दर्शाते हैं। वह निर्मल धारा, जैसे धूल में दल - दल, नीम में कटुता, विषधर में हाला, शुक्तिका में मोती बनती है, वैसे ही संगति के कारण मानव मति निर्मित होती है । कवि कहता है: "... जीवन का / आस्था से वास्ता होने पर रास्ता स्वयं शास्ता होकर / सम्बोधित करता साधक को साथी बन साथ देता है । / ... सार्थक जीवन में तब ।” (पृ. ९) विद्यासागरजी केवल योगी नहीं वरन् एक सहृदय सामाजिक और दार्शनिक भी हैं, जो संवेदना और तर्कबुद्धि से जन सामान्य को वह आलोक देते हैं, जो समता के राग का आलोक है । कवि की भाव ऊर्जा जैन धर्मानुशासन की भावभूमि से इतने घनिष्ठ रूप से जुड़ी है कि उनकी मानवनिष्ठ दृष्टि अपने प्रस्थानबिन्दु से लेकर अन्त तक मानव जीवन की संक्रमण स्थितियों के मार्मिक अन्त: साक्ष्य ढूँढ़ती हुई साधना सम्भव मुक्ति की असन्दिग्ध आकांक्षा का निर्देश करती है। उनकी सर्जनात्मक ऊर्जा में एक गहरी आस्था और अदम्य प्रतिबद्धता दिखाई देती है । धरती उस साधक (माटी) को आस्थापूर्ण साधना के लिए प्रेरित करती है और ध्यानमग्ना माटी, अपनी माँ के सम्बोधन को श्रवित कर बोल उठती है : " इस सम्बोधन से / यह जीवन बोधित हो, / अभिभूत हुआ, माँ !... बाहरी दृष्टि से / और / बाहरी सृष्टि से / अछूता सा कुछ भीतरी जगत को / छूता - सा लगा / अपूर्व अश्रुतपूर्व यह मार्मिक कथन है, माँ ! " (पृ. १४-१५) और उसके भीगे भावों की अभिव्यंजना से धरती आश्वस्त हो गई : " मेरे आशय, मेरे भाव / भीतर तुम तक उतर गए।” (पृ. १६) और फिर धरती अपने भावोच्छ्वास में एक गहन और सघन बुद्धिशीलता का परिचय देती है : 'कल के प्रभात से / अपनी यात्रा का / सूत्र -पात करना है तुम्हें ! प्रभात में कुम्भकार आयेगा / पतित से पावन बनने, / समर्पण - भाव- समेत उसके सुखद चरणों में / प्रणिपात करना है तुम्हें ।" (पृ. १६ - १७) कवि की रहस्यात्मक अनुभूति की मनोहरता, सृजनात्मक कल्पना की सूक्ष्मता और नैसर्गिक तादात्म्य की रमणीयता दर्शनीय है :
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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