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________________ काव्यशास्त्रीय निकष पर 'मूकमाटी' डॉ. महेन्द्र सागर प्रचण्डिया 'मूकमाटी' एक आध्यात्मिक काव्य है । इसके रचयिता हैं दिगम्बर जैन आचार्य मुनि विद्यासागरजी | आप सुधी साधक और कविर्मनीषी हैं । आपने काव्य शास्त्र की लीक से हटकर एक सशक्त काव्य रचा है जिसमें आत्मा के विकास का सुन्दरतम निदर्शन है । कवि की कल्पना, कवि का मनोभाव और उसकी अभिव्यक्ति शक्ति सर्वथा मौलिक और मूल्यवान् है । 'मूकमाटी' का कथ्य और कथानक सांसारिकं सामान्य प्राणी का प्रतीकार्थ मूकमाटी है | अपनी उपादान शक्ति और निमित्त शक्ति को मिलाकर वह निरन्तर श्रम साधना करती है, अपने को मल से निर्मल बनाती है और अन्तत: अपने स्वरूप को रूप प्रदान करती है । इस पूरी यात्रा को सूत्र शैली में कहूँ तो कहा जा सकता है कि 'मूकमाटी' का प्रमुख पात्र - माटी, कर्मचक्र से धर्मचक्र की ओर उन्मुख होती है और अन्तत: वह सिद्धचक्र को प्राप्त करती है । यहाँ आकर पुरुषार्थ की पूर्णता होती है । 'मूकमाटी' इस दृष्टि से एक प्रतीकात्मक काव्य है जिसमें दर्शन, धर्म और अध्यात्म एक साथ मुखर हो उठे हैं। माटी एक निरीह संसारी प्राणी का प्रतीक है। वह आजन्म मैली है। वर्ण से संकर है। मिथ्यात्व को समेटे कंकरमयी माटी कुशल निमित्त के हाथों शुद्ध होती है । अपने को समरस बनाती है । उसका आर्जवी गुण मुखर हो उठता है तब वह चाकमुखी होती है और धर्मचक्र के बलबूते पर अपने स्वरूप को रूपायित करती है । कवि की विलक्षण शक्ति सामर्थ्य है जो अपनी नई शैली और नई शब्द शक्ति से उसे अभिव्यक्ति देती है । पूरे काव्य में प्रकृति वर्णन आलम्बनी वातायन से मानवीकरण के द्वार तक बिखेरा गया है, जो भक्ति और रीतिकालीन कविता में प्रकृति वर्णन से सर्वथा भिन्न, छायावादी शैली से अनुप्राणित, प्रकृति में चेतना का आरोपण कर उसे अभिव्यक्ति में सहकारी के रूप में अपनाया गया है, यथा : "फूल ने पवन को / प्रेम में नहला दिया, / और बदले में पवन ने फूल को / प्रेम से हिला दिया !" (पृ. २५८) काव्य में अनेक रसों का उद्रेक हुआ है। किन्तु उसके स्थायीभाव रति, निर्वेद नहीं हैं । रति का स्थान लिया है शोभा । शोभा आत्मिक गुणों को उजागर करती है। यहाँ केवल तन द्युति अनुराग और विराग का स्पर्श नहीं है अपितु अदृष्ट आत्मा के अनन्त चतुष्टय का अवबोधक है। शोभा का दायरा विस्तृत है। वह दरिया में बदलाव लिए है। यही दशा है निर्वेद की । पदार्थ के प्रति विरोधमुखी होकर छोड़ने का कोई आग्रह नहीं है अपितु पदार्थ बोध होने पर निरोध को जगाने का सन्दर्भ सँजोया गया है। ऐसी स्थिति में पदार्थ का छूटना होता है। उपेक्षा की नहीं गई अपितु उपेक्षा हो गई है। इस प्रकार ग्रन्थराज में अध्यात्म रस का उद्रेक हुआ है । 1 जहाँ तक काव्य की संरचना का प्रश्न है । उसमें अनेक तत्त्वों का उपयोग हुआ है- उसमें छन्द हैं, उसमें अलंकार हैं, उसमें भाषा है और है शैली। इन कलापक्षीय अवयवों के प्रयोग में कवि ने व्यवहारगत नवीनता का संचार किया, जिसमें कवि का उद्देश्य कवि वैदुष्य प्रदर्शन करना नहीं रहा है, उसका मूलाभिप्रेत रहा है काव्याभिव्यक्ति को सशक्त करना । इसी अभिप्रेत से इस काव्य में अलंकारों के सुखद प्रयोग बन पड़े हैं। यमक का निरा नया प्रयोग काव्य सुख की सृष्टि करता है, यथा : " कूट-कूट कर सागर में / कूट- नीति भरी है ।" (पृ. २२७)
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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