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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 29 शब्दावली को रचयिता ने बड़ी कुशलता से बचाया है, फिर भी बिम्ब इतने अधिक हो गए हैं कि पाठक कहीं-कहीं खोसा जाता है । अधिकांशत: भाषा में सौष्ठव है, परन्तु कहीं-कहीं उसमें सपाटता भी है। काव्य की विशेषता ही यह होती है कि उसका प्रत्येक शब्द अर्थ-गाम्भीर्य-युक्त होता है । जयशंकर प्रसाद की कामायिनी' इसका ज्वलन्त दृष्टान्त है। भाषा सुगठित होती है तो उसका रूप निखर आता है। पुस्तक की सामान्य मर्यादाओं के बावजूद मैं हिन्दी साहित्य में उसे ऊँचा स्थान देता हूँ। वह उदात्त विचारों का अनन्त भण्डार है । एक प्रकार से जीवन संहिता है । वह रत्नों का सागर है । इस सागर में जो जितनी गहरी डुबकी लगाएगा, उतने ही अनमोल रत्न उसके हाथ लगेंगे। मेरी आकांक्षा है कि यह पुस्तक प्रत्येक शिक्षित परिवार में पहुँचे और परिवार का हर सदस्य इसे पढ़े। यह पुस्तक प्रेरणा का अक्षयस्रोत है । जीवन के मर्म को इतने सरल ढंग से हृदयंगम कराने वाली अन्य पुस्तक अब तक मेरे देखने में नहीं आई। बड़ा ही सामान्य बिम्ब लेकर लेखक आध्यात्मिकता की अतल गहराई में गए हैं और उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि जीवन निष्प्रयोजनीय नहीं है । उसका ऊँचा आदर्श है। पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह जीवन से जुड़ी है और उसका विषय प्रतिपादन इतने सुगम ढंग से किया गया है कि सामान्य शिक्षित व्यक्ति भी उसे समझ सकता है। उसमें जटिल तात्त्विक विवेचन नहीं है, क्लिष्ट शब्दावली नहीं है । इसी से वह सबके लिए उपादेय है। पाठक आचार्य श्री विद्यासागरजी की इस महान् कृति के लिए चिरकाल तक आभारी रहेंगे। एक लेखक के नाते मैं कह सकता हूँ कि 'मूकमाटी' एक कालजयी रचना है। आचार्यश्री को ऐसी जीवनोपयोगी रचना के लिए मेरी ओर से हार्दिक अभिनन्दन । मैं आशा करता हूँ कि उनकी लेखनी अब विराम नहीं लेगी और इस प्रकार की अनेक रचनाएँ पाठकों को पढ़ने के लिए सुलभ होंगी। पृष्ठ पर क्योंकि, सुनो! ---- .... याद दया | ।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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