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________________ 14 :: मूकमाटी-मीमांसा शब्दार्थ भी चारु होंगे ही । शब्दार्थ रूपी शरीर पर इसी आन्तर चारुता की आभा या दीप्ति उभरती है। ऐसे ही चारु शब्दार्थ को काव्य कहते हैं। इस समग्र दृष्टि से इसे काव्य कहने में क्यों लोगों को संकोच प्रतीत होता है ? काव्य होने के बाद इसकी विधा निर्धारण का प्रसंग आता है। विधा में दुविधा और सुविधा दोनों सम्भाव्य हैं, अत: दोनों तरह की बात सामने आती है। काव्य की विधा पर अनेक दृष्टियों से विचार किया गया है। उनमें से प्रमुख हैं- भाषा, बन्ध, शैली, इन्द्रिय माध्यम और अर्थ । सामान्यत: बन्ध या सम्बन्ध की सापेक्षता या निरपेक्षता को लेकर काव्य के दो भेद माने गए हैं- मुक्तक और प्रबन्ध । आलोच्य कृति के पद एक कथासूत्र में परस्पर बँधे हुए हैं, अत: सम्बन्ध या बन्ध सापेक्ष हैं । फलत: उनसे जो आकार विधा ग्रहण करती है, वह प्रबन्धकाव्य की है। प्रबन्ध काव्य भी तीन प्रकार के हैं- खण्ड, एकार्थ और महाकाव्य । इसमें 'घट' के माध्यम से आकार ग्रहण से लेकर मोक्ष प्राप्ति तक की समग्र महायात्रा वर्णित है, अत: 'खण्ड' का तो सवाल ही नहीं उठता। 'एकार्थ' की विशेषता यह होती है कि उसकी घटनाएँ बड़ी त्वरामय पद्धति पर एकोन्मुख होती हैं मुख्य 'अर्थ' (प्रयोजन) की ओर । प्रस्तुत कृति में अनेक अवान्तर घटनाएँ कथाधारा को शिथिल करती हैं। अत: इसे एकार्थ काव्य भी नहीं कह सकते । पारिशेष्यात् महाकाव्य ही कहना पड़ता है । कारण, इसमें ‘महत्त्व' भी है और 'काव्यत्व' भी । अत: महाकाव्य की मूल चेतना विद्यमान है । काव्यशास्त्रियों ने महाकाव्य की जो परिभाषाएँ दी हैं, उनमें कुछ अन्तरंग तत्त्व हैं और कुछ बहिरंग या औपचारिक । उदाहरण के लिए -(१) कथा वस्तु (२) वर्णन (३) भावविधान तथा (४) संवाद योजना। ये सब महाकाव्य के अन्तरंग बिन्दु हैं और शेष सब बहिरंग । समग्रत: निम्नलिखित बिन्दुओं का उल्लेख किया जा सकता है : (१) सर्गबद्धता- कम से कम आठ (२) एक या अनेक नायक - प्रख्यातकुल सम्भूत (३) शृंगार, वीर तथा शान्त में से कोई एक (४) पंच सन्धियों का विधान (५) कथा वस्तु - प्रख्यात या कल्पित (६) चार पुरुषार्थों में से कोई भी एक (७) त्रिविध मंगलाचरण में से कोई एक (८) यत्र-तत्र खल-सज्जन की निन्दा-स्तुति (९) छन्दो-विधान एक - सा, सर्गान्त में परिवर्तन (१०) सर्गान्त में भावी कथा की सूचना (११) वर्णन- सन्ध्या, सूर्य, ऋतु, वन, सागर, नगर आदि (१२) लोक स्वभाव का निर्वाह, ताकि विश्वसनीयता बनी रहे तथा (१३) संवाद विधान । इनम स क्रम संख्या ३,५, ११ तथा १३ का उल्लेख अन्तरंग तत्त्व के रूप में ऊपर किया जा चका है। शेष या तो इनसे सम्बद्ध हैं अथवा बहिरंग, फलत: औपचारिक । मंगलाचरण कोई अनिवार्य तत्त्व नहीं हैं। वह कृतिकार मन में भी कर सकता है। शेष बिन्दुओं में से ऐसा कुछ भी नहीं है, जो यहाँ न हो । कथावस्तु कल्पित भी हो सकती है, सो है । नायक का सवाल अवश्य उठता है । कृति का शीर्षक है- 'मूकमाटी' । प्राय: महाकाव्यों की संज्ञा प्रमुख पात्र या नायक के आधार पर दी जाती है अथवा प्रमुख घटना पर । 'मूकमाटी' न चेतन पात्र है और न ही प्रमुख घटना, तथापि शीर्षक देने से यह ध्वनित होता है कि कृतिकार को उसमें सम्भाव्य गरिमा दिखाई देती है। चेतन जीव की सम्भाव्य गरिमा अचेतन अ-जीव की सहायता के बिना उपलब्धि नहीं बन सकती। यह सही है कि चेतन जीव में अनादि सिद्ध सांकर्य अजीव से सम्बन्ध के कारण ही है। परन्तु बन्ध - हेतु आस्रव का संवरण और संचित की निर्जरा भी इसी अ-जीव के बीच सम्पाद्य साधना से सम्भव है, भले ही अन्तत: वह भी त्याज्य और अनुपादेय हो जाता हो । कहा ही गया है : "असत्ये वर्त्मनि स्थित्वा ततः सत्यं समीहते।" त्याज्य और अनुपादेय के सहारे ही ग्राह्य की ओर बढ़ा जाता है । अन्तर उनके उपयोग की चेतना में आ जाता है। कर्मद्रव्य की अपेक्षा भावद्रव्य महत्त्व का है। वर्ण-लाभ में उपयोगी चेतना से बन्ध-हेतु अपना स्वभाव छोड़ देता है। 'मूकमाटी' अपनी तुच्छता के बावजूद अपनी सम्भाव्य गरिमा में महान् है। उसमें उस घटाकार परिणाम की सम्भावना है, जो गुरु चरणों में समर्पण के प्रतीक से मुक्ति का द्वार खोलता है। विसर्जन या समर्पण के बिना मुक्ति का वह द्वार नहीं खुलता । घट अ-जीव तो है ही अपनी अभिधा में, जीव भी है अपनी प्रतीकात्मकता में । समग्र होकर ही परम पुरुषार्थ रूप प्रयोजन की ओर उसका प्रयाण है । घट की माँ है- मूक माटी और "आत्मा वै जायते पुत्रः" के न्याय से दोनों में
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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