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________________ प्रथम विहार मास-मास कळपे अछै, पुर बाहिर ने उद्देशे पेखळ्यो, वृहत्कल्प' में गोगुंदा थी करी, 'सेमटाल' रे करी गोचरी आविया, 'रावलियां' में कदाच जो दूजे दिने, 'सेमटाल' पहिले दिन घर फर्शिया, तसु कळपे अपर संत साथे हुवै, फर्शे घर कळपै मुनि दत्त पाछा तसु बहि अन्य मुनि भणी, संत मुनि किण गाम थी, घर फर्शी विहार कियो विन भोगव्या, अथवा भोगव शकुनादिक ना जोग स्यूं, कदाच घर पाछे नीपनों, पण कळ् पहिला घर हुवो असूझतो, विहार करी फिरी घर तसु कळ्पे नहि, घर असूझता रे पहिले दिन घर फर्शिया, दूजे दिन करी फिर आयां कल्पे नहि, नित्यपिंड विहार तणीं मन धार नें, घर फरस्या कदाच विहार हुवे नहि, नहि कळपे पछे विहार तणी मन धार नें, घर फरस्या केइक विहार कियो सही, केइक रह्या विहार कियो पुर बार थी, फिर आया किण पछे नीपनो घरें, कळपे तास ४० (१७) संत बहु किण गाम में, कांइ सहज कारणीक सोय । अणगार । तिवार || जोग । प्रयोग । | कळपे उष्ण आथण तसु, नित्यपिंड न कळपे कोय ॥ प्रथम दिवस घर फरसिया, नहीं कळपे दूजे दीह । संत आया पर गाम सूं, तसु कळपे सुध लीह ॥ त्यां नित्यपिंड प्रभाते फरसिया, सुखे आथण कळपे नाय । कारणीक त्यांमें वे अर्थे कळ्पाय ॥ सहज कारणीक जेह । २९ ३० (१४) ३१ ३२ ३३ (१५) ३४ ३५ ३६ ३७ (१६) ३८ ३९ ४१ (१८) ४२ ४३ ४४ (१९) मांय । न्याय ॥ १. कप्पसुतं १ / ७ ३५४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था मांय । ताय ॥ ते आय । ते नाय ॥ जेह | एह ॥ तिणवार । विहार ॥ आय । ताय ॥ आय । न्याय ॥ विहार । दोषण धार ॥ ते मुन्न। निपन्न ॥ आगे मुनि मांहे हुता, तसु अर्थे नित्यपिंड घर तणों, नवा संत आणेह ॥ अधिक कारण हुवै केहनै, तो नित्यपिंड अन्नपाण नवा आगला मुनि बिहुं, कांइ बहरी आपे आण ।। २. सायंकाल
SR No.006153
Book TitleTerapanth Maryada Aur Vyavastha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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