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________________ वंचित रहना पड़ता है और आगमों के सूत्रों को एवं ग्रन्थकर्ता प्रामाणिक महापुरुषों को अप्रामाणिक कहकर ज्ञान तथा ज्ञानियों की आशातना से घोर पापकर्मों का उपार्जन होता है। 2. बत्तीस आगमों की भी नियुक्ति, भाष्य और चूर्णि वगैरह नहीं मानने से, उनके विरुद्ध स्वकपोल-कल्पित टीकाटब्बे आदि बनाकर, स्व-पर को अनर्थ के भयंकर गड़े में डुबोना हैं। 3. अन्य चरित्रादि ग्रन्थों में से मूर्ति-विषयक पाठ उड़ा कर उनकी जगह स्व-कल्पित पाठ लिखकर सैकड़ों ग्रन्थों में मूल ग्रन्थकर्ता के अभिप्राय के विरुद्ध उथल-पुथल और चोरियाँ करनी पड़ती हैं, इससे भी महाकर्मबन्धन होता है। ___ 4. मूर्ति को नहीं मानने से यात्रा हेतु तीर्थस्थानों में जाना आदि स्वतः ही बन्द हो जाता है। इससे तीर्थस्थानों में यात्रा निमित्त जाने के जो लाभ होते हैं वे अपने आप बन्द हो जाते है। तीर्थभूमि में जाने पर उतने समय के लिए गृहकार्य, व्यापार, आरम्भ, परिग्रहादि से स्वाभाविक मुक्ति मिलती है पर जब ऐसे स्थानों पर जाना ही बन्द हो जाता है तब ब्रह्मचर्यपालन तथा शुभ क्षेत्रों में द्रव्य-व्यय आदि द्वारा जो पुण्योपार्जन होता है, वह रुक जाता है। 5. मूर्ति को नहीं मानने से श्री जिनेश्वरदेव की द्रव्यपूजा छूट जाती है और इससे द्रव्यपूजा निमित्त जो शुभ द्रव्य व्यय होता है तथा भगवान के सामने स्तुति, स्तोत्र, चैत्यवन्दनादि होते है, वे रुक जाते है और श्री जिनमन्दिर जाकर प्रभुभक्ति के निमित्त अपने समय और द्रव्य का सदुपयोग करने वाले पुण्यवान आत्माओं की टीका और निन्दा करना ही बाकी रहता है। इससे क्लिष्ट कर्मों का उपार्जन और अज्ञानादि महान् दोषों की प्राप्ति होती है। 6. मूर्ति को नहीं मानने से श्री जैनसंघ की एकता को बड़ा आघात होता है तथा एक ही धर्म के मानने वाले व्यक्तियों में धर्म के निमित्त फूट के बीजों का बीजारोपण होता है जिससे अन्य लोगों में भी जैनधर्म की हँसी होती है। प्रवचन की मलिनता करवाना महान् दोष है। इतना ही नहीं, इससे जैन धर्म के प्रति जैनेतरों का जो आकर्षण है वह भी स्वाभाविक रूप से कम हो जाता है। प्रतिमा-पूजन से होने वाले लाभ अब श्री जिनप्रतिमा की पूजा से होने वाले लाभों से भी परिचय प्राप्त कर लें - 1. सदा पूजा करने वाला व्यक्ति पाप से डरता है तथा पर-स्त्रीगमन आदि अनीतिपूर्ण अपकृत्य करने के संस्कार इसकी आत्मा में से धीरे-धीरे नष्ट हो जाते हैं। 2. कुछ समय प्रभु के गुणगान करने का अवसर निरन्तर प्राप्त होता है और इससे - 53
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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