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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ १४ द्वितीय स्तंभ सोलहवा व्याख्यान मन-शुद्धि का ही वर्णन किया जाता है - जोमन की शुद्धि कोधारणकीये बिना मुक्ति के लिए तपस्या करतें हैं, वेनाँव को छोड़कर दोनों भुजाओं से बड़े समुद्र को तैरने की इच्छा करतें हैं । उससे सिद्धि के इच्छुक के द्वारा अवश्य मन-शुद्धि करनी चाहिए । बहुत आरंभ में भी शुद्ध मन से आत्मा मोक्ष को प्राप्त करता हैं। इस विषय में आनन्द-श्रावक का प्रबन्ध जानें और वह यह हैं राजगृह में एक दिन गुणशील चैत्य में समवसरण में पधारें हुए जिनेश्वर को सुनकर आनन्द नामक कौटुम्बिक स्वजनों के साथ पैदल चलकर जाता हुआ केवली को नमस्कार कर और अनेकान्त व्यवस्थापिक वाणी को सुनकर प्रतिबोधित हुआ सम्यक्त्व पूर्वक देश संयम को ग्रहण किया । प्रथम उसने द्विविध त्रिविध से स्थूलप्राणातिपात आदि पाँच अणुव्रतों को ग्रहण कीये । चतुर्थ व्रत में स्वद्वारा विना विरति को स्वीकार किया । पाँचवें व्रत में स्व इच्छा से द्रव्य-मान किया । निधि में रक्षण के लिए चार करोड़ स्वर्ण, चार करोड़ स्वर्ण ब्याज के लिए, चार करोड़ स्वर्ण व्यापार में और उससे अधिक का नियम लिया । तथा दश हजार गायों से एक गोकुल होता है, इस प्रकार से चार गोकुल, हजार बैल-गाडियाँ, कृषि के लिए पाँच सो हल और चार वाहनों को, उससे अधिक की विरति ग्रहण की । दिग् व्रत का वर्णन व्रताधिकार में किया जायगा । सातवें व्रत में अनन्तकाय, अभक्ष्य, और पंद्रह कर्मादान विरति को ग्रहण की । तथा यष्टि मधुक के दन्त-धावन को और मर्दन में सहस्रपाक और शतपाक तैल के बिना अन्य तैल को नहीं, उबटन में गेहूँ से बनें चूर्ण
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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