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________________ ४१३ उपदेश-प्रासाद - भाग १ एक दिन उसने वर के लिए इच्छुक हुए पिता से कहा कि निरंजन, बत्ती से मुक्त, तेल के व्यय और कंपन से रहित दीपक को जो निरंतर धारण करता है, वह मेरा पति हो । इस प्रकार से उसके वचन को सुनकर और दुष्कर अभिग्रह को जानकर चिन्तार्त हुए श्रेष्ठी ने उस वार्ता को नगर में उद्घोषणा की । उस वार्ता को सुनकर नागिल धुतकार ने यक्ष के सान्निध्य से ऐसा दीप कराया । उसके गृह में दीप को देखकर आनंदित हुए श्रेष्ठी ने नागिल को स्व पुत्री दी। उसे व्यसन में आसक्त हुआ जानकर पुत्री अत्यंत दुःखी हुई । विवाह करने पर भी वह द्यूत को नहीं छोड़ रहा था और उससे नित्य द्रव्य व्यय हो रहा था । पुत्री के स्नेह से श्रेष्ठी नित्य उसे पूर्ण करता था । नन्दा तो पति के साथ मन के बिना ही परिचरण करती । उसने एक बार सोचा कि- अहो ! इसका गांभीर्य, जो बड़ा अपराध करने पर भी यह मुझ पर क्रोध नहीं कर रही है। एक दिन उसने भक्ति पूर्वक ज्ञानी से पूछा कि- हे मुनि ! शुद्ध आशयवाली भी मेरी प्रिया मुझे चित्त में धारण नहीं करती है । उसे योग्य जानकर मुनि ने अंतरंग दीपक के स्वरूप को कहा कि अञ्जन-माया कही जाती है और बत्ती-नव तत्त्व की अस्थिति है । तेल का व्यय- प्रेम-भंग है और कंपन-सम्यक्त्व का खंडन है । उनसे रहित विवेक को जो धारण करता है, वह मेरा पति हो । इस प्रकार उसने दीपक के बहाने से कहा था, परंतु किसी ने उससे अर्थ नहीं पूछा। तुमने तो धूर्तपने से यक्ष की आराधना कर पूर्व में कहे दीपक को किया । श्रेष्ठी ने तुझे स्व पुत्री दी । तुम व्यसनी हो और यह शीलादि गुणों से युक्त है, उससे तुझे लेश-मात्र भी चित्त में धारण नहीं करती है । यदि तुम व्रतों को अंगीकार करोगे, तो तुम्हारा इच्छित
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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