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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ ३७६ सुग्राम में सुन्दर श्रेष्ठी दाता और लोक-प्रिय था, क्योंकि प्रजाओं को प्रिय दाता ही है न कि धन का स्वामी । लोक आते हुए मेघ की वांछा करते है न कि समुद्र की । एक पड़ोसी ब्राह्मणी उस श्रेष्ठी की निंदा करती थी किवैदेशिक यहाँ आते हैं, यह धर्मी है, इस प्रकार से वेंइसके समीप में स्व द्रव्य को रखते है, वें तो विदेश में मर जाते है, इस प्रकार से इसे उत्सव हुआ है । जान लिया है कि यह धर्मी है । एक बार रात्रि में भूख से पीड़ित कार्पटिक आया। तब कुछ-भी भोजन और पेय नहीं था । वह दाता, दान-व्रती ग्वालिनी के गृह से छाछ लाकर उसे अर्पित की। वह मर गया । ग्वालिनी के सिर ऊपर स्थित उद्घाटित मुखवाली थाली में वह छाछ बाज पक्षी के द्वारा नीचे धारण कीये हुए बड़े सर्प के मुख से गिरे हुए विष से मिली हुई थी। प्रातः उसे मृत देखकर वृद्धा हर्षित होने लगी कि- देख लिया दाता के चरित्र को ? यह धन के. लोभ से दुःखी हुआ है। इस मध्य में वह कार्पटिक की हत्या भ्रमण करती हुई चिन्तन करने लगी कि- मैं किसे लगूं? दाता विशुद्धात्मा है और सर्प भी अज्ञ तथा परवश है, बाज पक्षी सर्प की भक्षिनी है, ग्वालिनी अज्ञ है, उससे मैं किसे ग्रहण करूँ ? इस प्रकार से विचार करती हुई उसी निन्दा करनेवाली ब्राह्मणी को ग्रहण किया। वह शीघ्र ही श्याम, कुब्ज और कुष्ठिनी हुई । सभी उसकी निन्दा करने लगें । हत्या ने स्वेच्छा से लोगों के प्रति कहा कि माता कुंभ के दोनों टुकड़ों से बालक की विष्टा को दूर करती है । कंठ, तालु और जीभ से त्याग करते हुए दुर्जन ने माता को भी पर(-)निंदा के द्वारा नीचे किया है। इस प्रकार से सकल जनों को गोचर अवर्णवाद श्रेयस्कारी
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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