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________________ ३५६ उपदेश-प्रासाद - भाग १ जो इस प्रकार से कहतें हैं । उनके प्रति यह शिक्षा आर्द्रकुमार दृष्टान्त के द्वारा कही जाती है कि मगध के स्वामी श्रेणिक राजा ने पूर्वजों की प्रीति की वृद्धि के लिए आईक राजा को निज मंत्री के साथ भेंट भेजी । उसने राजा के समीप में भेंट रखी । राजा के कुशल पूछने पर मंत्री प्रश्नों का उत्तर देकर स्थित हुआ । उसके बाद आर्द्रक राजा के पुत्र आर्द्रकुमार ने श्रेणिक के मंत्री से प्रश्न पूछा कि- तुम्हारें राज-पुत्र का क्या नाम हैं ? मंत्री ने कहा किधर्मज्ञ और पाँच सो मंत्रियों के स्वामी क्या आपने अभय नामक पुत्र के बारे में नहीं सुना है ? यह सुनकर कुमार ने भी अभय के लिए मोती आदि भेजें । राजगृह में आकर और क्रम से उन दोनों को वह भेंट देकर मंत्री ने अभय से कहा कि- आर्द्रकुमार आपके साथ मैत्री करने की इच्छा करता हैं । तब अभय ने सोचा कि-निश्चय से यह व्रत की विराधना कर अनार्य देश में उत्पन्न हुआ हैं। अभव्य अथवा दूरभव्य मेरे साथ मैत्री की इच्छा नहीं कर सकता, क्योंकि प्रीति से रंगे हुए समानधर्मियों में वह होती है, इसलिए मैं वहाँ अर्हत्-बिंब को भेजता हूँ और उसे देखकर वह प्रतिबोधित होगा, इस प्रकार से विचारकर भेंट के बहाने से पेटी के अंदर रत्न प्रतिमा भेजी । वह भी वहाँजाकर और रहस्य में उस पेटी को देकर तथा प्रणाम कर चला गया । कुमार ने भी उस पेटी को खोलकर और उसके अंदर स्थित जिन-मूर्ति को देखकर सोचा कि- यह आभरण क्या कंठ में, सिर पर अथवा हृदय पर धारण किया जाता है ? मैंने इसे पूर्व में नहीं देखा है, इस प्रकार से सोचते हुए कुमार ने जाति-स्मरण ज्ञान प्राप्त किया, जैसे कि इस भव से तृतीय भव में बन्धुमती का पति मैं सामायिक नामक कौटुंबिक था । प्रिया से युक्त मैंने वैराग्य से दीक्षा ग्रहण की । एक दिन साध्वीयों के मध्य में स्थित स्व-वधूको देखकर पूर्व के अनुराग
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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