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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ ३३४ दासी-पुत्र के वृत्तांत से अच्छी तरह से विचारकर, राग से और रोष से हिंसा को छोड़कर चिद् रूपी लक्ष्मी को धारण करनेवाला साधु (सज्जन) है। इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में पञ्चम स्तंभ में सडसठवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ। अड़सठवा व्याख्यान अब कोई अज्ञ पुरुष इस प्रकार कहता है कि- मच्छीमार, शिकारी आदियों के समान ही हमारा कुल-आचार होने से बकरें, सूअर आदि की हिंसा केवल ही पाप-हेतु नही हैं, किन्तु ईश्वर के द्वारा ही यह अवतार दिया गया है । हमारे पूर्वजों के द्वारा आचरण किया गया है, उसके आचरण में कोई भी दोष नहीं हैं। उसके प्रति यह शिक्षा है कि जो पंडित कुल-क्रम से आयी हिंसा को छोड़ देता है, उसे कुमारपाल के समान श्रेष्ठ श्रावकोत्तम जानें। यहाँ श्लोक में कहा गया यह उदाहरण हैं श्रीपाटण में सिद्धराज के कथा-शेषत्व प्राप्त हो जाने पर विक्रम राजा से ग्यारह सो और निन्यान्हवें वर्ष में कुमारपाल राजा हुआ था। क्योंकि न ही लक्ष्मी कुल-क्रम से आयी हुई हैं और न ही शासन में लिखी हुई हैं, उसे तलवार से आक्रमण कर भोगें क्योंकि वसुंधरा (पृथ्वी) वीर-भोग्य है। पचास वर्षीय उस राजा ने देशान्तर के भ्रमण से निपुण
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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