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________________ ३२० उपदेश-प्रासाद - भाग १ मत्स्य आया, उसे छोड़ दिया । पुनः भी वही मत्स्य जाल में आया । पहचान के लिए कंठ में कोड़ी को बाँधकर उसे छोड़ दिया। फिर से भी वही मत्स्य आ गिरा । इस प्रकार से अन्य स्थानों में भी सन्ध्या की अवधि तक वही आया । हरिबल की दृढ़ता से संतुष्ट हुए देव ने कहा कि- तुम इष्ट वर माँगों । उसने हर्ष से कहा कि- आपदा में शीघ्र से तुम मेरा रक्षण करना । देव वर देकर तिरोहित हुआ । मत्स्य लाभ के अभाव से पत्नी के भय से वह बाह्य देव-कुल में रहा । इस ओर गवाक्ष में स्थित राजकन्या ने हरिबल नामक किसी श्रेष्ठी पुत्र को देखकर किसी उपाय से उसे राग-सहित किया । उन दोनों ने संकेत स्थान दैव योग से परस्पर उसी देव स्थान को निश्चय किया । रात्रि के समय अश्व के ऊपर चढ़कर और स्व सर्वस्व का संग्रह कर वसन्तश्री उसके द्वार पर आयी । श्रेष्ठी के पुत्र ने इस प्रकार से विचार किया कि- राज-पुत्री होने के कारण से और कुल-मलिनता का हेतु होने से गुणियों को यह योग्य नहीं हैं, इस प्रकार से विचारकर वह स्व-गृह में ही रहा, क्योंकि स्त्री-जाति में दांभिकता, वणिग्-जाति में अत्यंत भीरुता, क्षत्रिय-जाति में रोष, पुनः ब्राह्मण-जाति में लोभ होता हैं। अब वह राजकन्या देव के द्वार पर स्थित होकर मध्य में रहे हुए हरिबल से कहने लगी कि- हे स्वामी ! देशान्तर में जाया जाय जिससे कि हम दोनों का मनोरथ फलित हो । उसने भी संकेत को जानकर हूंकार किया । वह राजकन्या के वचन से बाहर निकला। दोनों भी घोड़े के ऊपर चढकर चलने लगें । राज-पुत्री उससे बारबार आलापन करने लगी । और वह सर्वत्र भी उत्तर में हुंकार को देता था। उससे खेदित हुई वह सोचने लगी कि- यह कोई अन्य ही हैं, इस प्रकार से उसके विचार करने पर और उद्योत होने पर तब उसके
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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