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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ ३०७ पर मेरा नाम कहना । राजा ने मंत्री के वचन से वैसा किया । रात्रि में विद्युत्पात से गृह के जल जाने पर और रानी के मरने पर आश्चर्य चकित हुए राजा ने सूरि को घर में बुलाया । सूरि को देखकर और आसन को छोड़कर, नमस्कार कर कहा कि- हे भगवन् ! मैं आपको अपना मुख भी दिखाने के लिए समर्थ नहीं हूँ। तब स्तंभ तीर्थ में रक्षण किया था । यहाँ पर भी जीवन-दान दिया है । इसलिए मेरे राज्य को ग्रहण कर मुझे ऋण-रहित करें । सूरि ने कहा कि- हे राजन् ! निःसंगतावालों को राज्य से क्या प्रयोजन हैं ? हेराजन् ! यदि तुम कृतज्ञपने से प्रत्युपकार करने की इच्छा करते हो तो अपने लिए हितकारी जैन-धर्म में निज मन को स्थापित करो। जीव को पद-पद पर घर, प्रिया, पुत्र, दास, बान्धव, नगर, आकर, गाँव और राजाओ की संपदाएँ होती हैं, परन्तु पंडितों के द्वारा पूजित निर्मल तत्त्व-रुचि नहीं होती है । राजा ने कहा कि- हे स्वामी ! आप प्रति-दिन मेरे प्रतिबोध के लिए सभा में आये, जिससे कि अनेक ब्राह्मण आदि प्रणीत पक्षों के निरसन से मुझे सम्यग् धर्म-बुद्धि हो । उससे सूरि प्रति-दिन ब्राह्मण आदि के साथ में वाद और स्याद्वाद का स्थापन करने लगे। एक बार राजा ने सभा में पूछा कि- सर्व धर्मों के मध्य में कौन-सा धर्म श्रेष्ठ हैं ? सूरि ने कहा कि- भोज-राजा के आगे सरस्वती द्वारा दिया गया श्लोक सर्व दर्शनों के संवाद से कहा गया था, जैसे कि ___ बौद्ध धर्म सुनना चाहिए, पुनः अरिहंतो का धर्म करना चाहिए, वैदिक धर्म का व्यवहार करना चाहिए और श्रेष्ठ शिव का ध्यान करना चाहिए । पुनः राजा ने कहा कि
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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